Monday, November 3, 2014

जनसंस्कृति को नए सिरे से परिभाषित करना होगा-रामप्रकाश त्रिपाठी

आज का समय तेज वैज्ञानिक प्रगति और संचार माध्यमों का समय है साथ ही आक्रामक व्यापार का समय है। आज विश्व का कोई स्थान ऐसा नहीं है जहां संचार के माध्यम से संपर्क नहीं किया जा सकता हो। इन माध्यमों का परिणाम यह है कि हम चाहें या न चाहें, हमें पसंद हो या न हो, हर समाचार, संदेश और सूचना घर घर पंहुचाई जा रही है। इस प्रगति का सीधा संबंध संस्कृति से है। जिसे हम लोकसंस्कृति कहते हैं लोककलाएं कहते हैं उनका भी कच्चापन और अनगढ़पन गायब हो गया है और वे एक संश्लेषित रूप में सजधज कर हमें परोसी जाती हैं। इसीलिए इप्टा की स्थापना के समय जनसंस्कृति की जो समझ थी वो अब बदल चुकी है। उसे हमंे नई परिस्थिति में ढाल कर देखना होगा। समाज में बहुत से संसाधन आ गये हैं। मोटर कारें हैं, बहुत बडे बडे भवन हैं हर हाथ में मोबाइल है और हर किसी के पास कोई न र्कोई इंधन से चलने वाला वाहन है। पर फिर भी हमारे ही संचार माध्यम ये भी बताते हैं कि देश में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और देश में सत्तर करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। उनकी आय 20 रूपये रोज से कम है। इन तथ्यों की रोशनी में हमें आज की जनसंस्कृति को समझना होगा। इसे इस तरह भी देखा जा सकता है कि आज भी फूहड़ नाटक को देखने के लिए दर्शक नहीं जाते और अच्छे नाटक को देखने के लिए दर्शक जाते हैं। अच्छी प्रस्तुति के बारे में दर्शकों में एक सामान्य समझ है और उसका अवमूल्यन वो नहीं करते हैं।
ये विचार हैं लेखक, पत्रकार श्री रामप्रकाश त्रिपाठी के जो उन्हांेने विवेचना द्वारा आयोजित विचारगोष्ठी में ’जनसंस्कृति और आज का समय’ विषय पर बोलते हुए व्यक्त किए। श्री रामप्रकाश त्रिपाठी भोपाल में प्रखर रंग समीक्षक, लेखक, और पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं।
कार्यक्रम के शुरू में इप्टा के

रामप्रकाश भाषण देते हुए 

इंद्रपाल सिंह जनगीत गाते  हुए 
राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य और विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने ’जनसंस्कृति दिवस’ के बारे में बताया कि इप्टा की स्थापना 25 मई 1943 को हुई थी। मुम्बई में पूरे देश से कलाकार इकठ्ठे हुए थे और इप्टा का गठन हुआ था। इप्टा ने देश के स्वाधीनता आंदोलन मंे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश के गांव गांव में फैले कलाकारों को मंच पर लाकर आम जनता की संस्कृति और आकांक्षाओं को उजागर किया।
विवेचना के इस आयोजन में इन्द्रपाल सिंह व साथियों ने मानवीय भावनाओं से ओतप्रोत नग्में प्रस्तुत किये। उल्लेखनीय है कि अभी चार दिन पहले दिवंगत हुए कलाकार श्री अनिल पांडे ने इस संगीत के कार्यक्रम का संयोजन किया था मगर आज यह कार्यक्रम उनके बिना ही उनको याद करते हुए संपन्न हुआ। श्रोताओं ने महसूस किया कि पुराने फिल्मी गीत मानवीय मूल्यों को बहुत अच्छे तरीके से अभिव्यक्ति देते हैं।
कार्यक्रम का संचालन बंाके बिहारी ब्यौहार ने किया और आभार प्रदर्शन वसंत काशीकर ने किया।

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