विवेचना जबलपुर ने काफी दिनों बाद एक बार फिर अपने पुराने नाटक ’मानबोध बाबू’ का मंचन 29 जून 2013 को जाय स्कूल विजयनगर जबलपुर में किया। यह नाटक चन्द्रकिशोर जायसवाल की इसी नाम की कहानी पर आधारित है। यह नाटक दर्शकों में जादू का सा असर करता है। नाटक में दो मुख्य पात्र हैं लेकिन उनकी बातचीत कभी प्रहसन तो कभी उपदेश का काम करती है। पूरा नाटक नव रसों से युक्त है। इसमें रहस्य भी है रोमांच भी है, कौतूहल भी है। हास्य और रोचकता भी है। जबलपुर में काफी दिनों बाद हुए मानबोध बाबू के मंचन को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया।
मानबोध बाबू में विवेचना के दो वरिष्ठ कलाकार मुख्य पात्र हैं। सीताराम सोनी और संजय गर्ग। मानबोध बाबू एक मस्तमौला जीव हैं जिन्होंने अपनी नौकरी-व्यापार से सन्यास ले लिया है। ये कलकत्ता में रहते हैं। और समय समय पर घूमने निकल पड़ते हैं। इस समय वो मुम्बई से कलकत्ता जा रहे हैं। उनके साथ सामने की बर्थ पर मोहनलाल यात्रा कर रहे हैं। मिलते ही दोनों में बातचीत शुरू हो जाती है। मानबोध बाबू का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वे हिलमिल जाते हैं। जब मानबोध बाबू को पता चलता है कि मोहनलाल अपनी गांव की जमीन जायदाद बेचकर अपने लड़कों के पास रहने जाने का इरादा कर रहे हैं तो वे चौंक जाते हैं। वे मोहन लाल को इस निर्णय का नफा नुकसान समझाते हैं। उनका कहना है कि अपना सबकुछ बेचकर बच्चों के साथ रहना बहुत बड़ी भूल है। आप परजीवी होकर नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं। महानगरों के बारे में भी उनका अलग अनुभव है। वे मुम्बई, दिल्ली और कलकत्ता की अलग अलग झांकी दिखाते हैं। इस झांकी में निरंतर अमानवीय होते जा रहे महानगरीय मानव की विविध छबियां प्रस्तुत होती हैं।
मानबोध बाबू की दृष्टि में सबसे अच्छा महानगर है कलकत्ता। उसके बारे में वो कहते हैं कि कलकत्ता में जिंदगी आपके साथ साथ चलती है। मानबोध बाबू अपनी बातचीत के दौरान अच्छी जिंदगी जीने का दर्शन सिखाते जाते हैं। आपको भोला नहीं रहना है। मूर्ख नहीं रहना है। हमेशा चौकन्ना रहना है। हमेशा लड़ते रहना है। वो अच्छी अच्छी किताबों को पढ़ने की सलाह देते हैं। नाटक का अंत बहुत आकस्मिक और रहस्यपूर्ण है जो कई साल सवाल छोड़ जाता है।
नाटक में निर्देशक ने अनेक दृश्यों का निर्माण अपनी कल्पना से किया है जो बहुत प्रभावशाली है। नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। नाट्य रूपांतर संजय गर्ग का है।
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