Sunday, December 6, 2009

आदिविद्रोही नाट्य समारोह भोपाल में विवेचना का नाटक ’आंखों देखा गदर’ सराहा गया

स्वराज संस्थान, भोपाल द्वारा प्रतिवर्ष आदि विद्रोही नाट्य समारोह का आयोजन भोपाल में किया जाता है। इस समारोह में आदिवासी जननागरण के नायकों और विद्रोह की परंपरा में सदियों से अपनी आहुति देने वाले चरित्रों पर केन्द्रित नाटकों का मंचन किया जाता है। इस वर्ष विवेचना, जबलपुर को समारोह में आमंत्रित किया गया। 4 दिसंबर 2009 को विवेचना ने वसंत काशीकर के निर्देशन में ’आंखो देखा गदर’ नाटक का मंचन किया। आंखो देखा गदर स्व अमृतलाल नागर की रचना है। यह मराठी पुस्तक माझा प्रवास का हिन्दी रूपांतर है। सन् 1857 के विद्रोह के समय पुणे का एक ब्राह्मण विद्रोह के इलाके में घूम रहा था। उसने गदर आंखों से देखा। पुणे लौटकर उसने आंखों देखा गदर लिपिबद्ध किया और इस तरह ’माझा प्रवास’ अस्तिस्त में आया। इस पुस्तक में इन्दौर, महू, धार, उज्जैन, ग्वालियर, झांसी, कानपुर, लखनऊ और बनारस का बहुत विस्तृत और रोचक विवरण है। पुस्तक के लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर झांसी में रानी लक्ष्मीबाई को साक्षात देखा उनसे कई बार मिले, झांसी नगरी को घूमा। रानी झांसी का शासन और न्याय करने का तरीका, उनका रहन सहन बोलचाल और वेशभूषा उनकी सवारी सबकुछ का विवरण इस पुस्तक में है। इस पुस्तक के रानी झांसी के अंश को आंखो देखा गदर नाटक में प्रस्तुत किया गया है। महाराष्ट्र के सांगली जिले के बुधगांव की मंडली को पोवाड़ा शैली में नाटक को मंचित करने के लिए आमंत्रित किया गया। शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों की मंडली ने बहुत ही दमदार संगीत और आवाज के साथ जो पोवाड़ा शैली की ख़ासियत है आंखो देखा गदर हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया। नाटक का इतना सशक्त प्रस्तुतिकरण था कि दर्शक अभिभूत हो गये। दर्शकों ने कहा कि उन्हें शाहीर अमरशेख की याद आई। नाटक में सूत्रधार का किरदार संजय गर्ग ने निभाया। निर्देशक वसंत काशीकर ने बताया कि इस नाटक के अगले मंचनों में कई नए चरित्रों, घटनाओं को जोड़ा जाएगा। नाटक के डिज़ायन में परिवर्तन किये जाएंगे। है।
निर्देशकीय
सन् 1857 के गदर के 150 साल पूरे हो चुके हैं। आज का समय घटनाओं के विश्लेषण का समय है। यह समय 1857 की घटनाओं के विश्लेषण का समय है। इसीलिये आज 1857 एक बार फिर जाग उठा है। उसका पुनरावलोकन हो रहा है। बहुत से ऐतिहासिक तथ्य सामने हैं। पर आंखो देखा हाल विरल है। कुछ अंगे्रजों ने आंखों का देखा लिखा है। पर हिन्दी और भारतीय भाषाओं में यह दुर्लभ है। जब हम 1857 के बारे में जानना चाहते हैं तो बहुत कम जान पाते हैं। ऐसे समय में विष्णु भट्ट गोडशे वरसईकर की मराठी पुस्तक ’माझा प्रवास’ का हिन्दी रूपांतर आंखों देखा गदर के रूप में जब हाथ आता है तो अचानक ही हम धनवान हो उठते हैं। लगता है कि जैसे हम कोई फिल्म देख रहे हैं। पुस्तक चित्रपट के रूप में एक सूत्र में बंधी हुई चलती है। हर दृश्य, हर घटना का वर्णन बहुत सजीव और मार्मिक है। लक्ष्मीबाई के शौर्य, झांसी की लड़ाई और गदर का इतना सुंदर वर्णन शायद की कहीं पढ़ने को मिल सकेगा। इस किताब का अनुवाद अमृतलाल नागर ने किया है। नागर जी ने कहा भी है कि मूल किताब की भाषा इतनी सरल और रोचक है कि उन्हें अनुवाद में इसे बरकरार रखना एक चुनौती रहा।
’माझा प्रवास’ की मराठी पृष्ठभूमि के कारण इसके मंचन के लिये ऐसा तरीका तलाश किया जाना था जो बेहतर संप्रेषण कर सके, कृति के साथ न्याय भी कर सके और इसी तलाश में महाराष्ट्र की प्रख्यात लोकशैली पोवाड़ा सहायक बनी। ऐतिहासिक और राष्ट्रीय नायकों के चरित्र का वीर रस पूर्ण गायन पोवाड़ा महाराष्ट्र की लोकप्रिय और प्रभावी शैली है। लोकजागरण हेतु इसका ऐतिहासिक प्रयोग हुआ है। अन्नाभाउ साठे, अमर शेख संजीवन, शंकरराव निकम आत्माराम पाटिल जैसे पोवाड़ा के महान प्रस्तोता हुए हैं।
पोवाड़ा का इतिहास लगभग 400 वर्ष पुराना है। समाज के गुण दोष दिखाने और लोक जागरण के लिए पोवाड़ा का जन्म हुआ। वीररस पोवाड़ा की आत्मा है। यह इसका स्थायी भाव है। साथ ही श्रंृगार, हास्य, करूणा इसके पूरक तत्व हैं। वीर रस का पोवाड़ा और श्रृंगार रस की लावणी ये एक ही शरीर के दो हाथ हैं। पोवाड़ा का प्रमुख विषय शिवाजी रहे हैं।
मराठी काव्यधारा को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। संत कवि जो इहलौकिक विषयों पर लिखें, पंत कवि जो बौद्धिक विषयों पर लिखें और तंत कवि जो लोक विषयों पर लिखें। पोवाड़ा गायक को गांेधाली या शाहीर कहा जाता है। सन् 1857 के गदर का जो आंखो देखा हाल विष्णु भट्ट गोडसे वरसईकर ने माझा प्रवास में लिखा उसे दर्शकों तक पंहुचाने के लिए सांगली जिले के बुधगांव के शाहीर अवधूत बापूराव विभूते और उनके साथियों का सहयोग मिला और पोवाड़ा जैसी सशक्त लोकशैली के माध्यम से यह संभव होने से वह रोचक और ऐतिहासिक बना।
कथ्य
मुम्बई के ठाणे जिले के वरसई के निवासी वेदशास्त्र संपन्न विष्णुभट्ट शास्त्री गोडशे पेशे से पुरोहित भिक्षुक ब्राह्मण थे। गरीबी और कर्ज से मजबूर होकर उन्होंने ग्वालियर की रानी द्वारा मथुरा में आयोजित एक महायज्ञ में भाग लेकर मोटी दक्षिणा पाने के लिए लंबी यात्रा की। यात्रा काल वही था जब देश गदर के दौर से गुजर रहा था। उन्होंने यात्रा के दौरान जो गदर देखा उसका बहुत सटीक वर्णन किया है। उन्होंने वरसई से पुणे, नगर, सतपुड़ा वन्य प्रदेश, इंदूर, मउ, उज्जैन, धार, सारंगपुर, ग्वालियर, झांसी, कानपुर लखनऊ, काशी और फिर वापस वरसई तक की यात्रा की। दृव्यार्जन की लालसा से गदर के ही क्षेत्र में उन्हें पैदल सफर करना पड़ता था। गोरों की बंदूकों से बार बार उनका सामना हुआ करता था। उन्होंने मानवता और दानवता के दृश्य साथ साथ देखे थे। आम जनता अंग्रेजों से भय और घृणा करती थी और दिल से चाहती थी कि अंग्रेज इस देश को छोड़कर चले जाएं। आंखों देखा गदर आम जन की आंख से इस घटना को देखता है। इस प्र्रस्तुति में ’माझा प्रवास’ का वो अंश लिया गया है जो रानी झांसी लक्ष्मीबाई और उनके क्षेत्र में हुए गदर से संबंधित है। पूरी पुस्तक का दायरा बहुत बड़ा है और कई खंडों में काम की मांग करता है।

मंच पर
सूत्रधार वसंत काशीकर/संजय गर्ग
प्रमुख गायक/शाहीर अवधूत बापूराव विभूते
सहायक मार्शल सज्जन मोरे
बजरंग बापूसो अब्दागीरे
बालासाहेब पाटील
शुभम अवधूत विभूते
नारायण दादू पाटील
ओंकार अवधूत विभूते
मंच परे
ध्वनि प्रकाश हिमांशु राय
मूल पुस्तक माझा प्रवास
लेखक विष्णुभट्ट गोडशे वरसईकर
हिन्दी रूपांतर अमृतलाल नागर
नाट्य रूपांतर वसंत काशीकर, अवघूत बापूराव विभूते
प्रस्तुति प्रबंधन बांकेबिहारी ब्यौहार
प्रस्तुति परिकल्पना एवं निर्देशन वसंत काशीकर
नाट्य दल 13 कलाकारों का है और अवधि 1 घंटा 15 मिनिट है।

Sunday, November 22, 2009

वसंत काशीकर



विवेचना के नाट्य निर्देशक हैं। अभी तक 25 नाटकों का निर्देशन कर चुके हैं। जिनमें मौलिक और सामाजिक रूप से प्रतिबद्ध नाटक प्रमुख हैं। रानी नागफनी की कहानी, महाब्राह्मण, गधे की बारात, पोस्टर, बैरिस्टर, दूसरी आजादी, मोटेराम का सत्याग्रह, एक मामूली आदमी, मायाजाल आदि नाटकों के निर्देशन से पहचान बनी है। पिछले चार वर्षों में मायाजाल, मानबोध बाबू, सूपना का सपना और मित्र नाटकों के निर्देशन से देश के प्रमुख नाट्य निर्देशकों में माने गये हैं। अच्छे अभिनेता भी हैं और अनेक नाटकों में अभिनय भी किया है। मित्र नाटक में निर्देशन के अलावा मुख्य भूमिका का निर्वाह भी किया है। महाविद्यालयों में एक दिवसीय नाट्य कार्यशालाओं के माध्यम से महाविद्यालयीन छात्रों को जोड़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में बच्चों के लिये नाट्य शिविर लगाये हैं। इन दिनों वसंत काशीकर अमृतलाल नागर की किताब ’आंखों देखा गदर’ पर महाराष्ट्र के पोवाड़ा शैली के लोककलाकारों के साथ मिलकर एक नाट्य प्रस्तुति करने जा रहे हैं।

सूपना का सपना

नाटक का कथासार
यह नाटक मूलतः लूशुन की कहानी पर आधारित है। गांव में उत्सव चल रहा है, गांव में एक गढ्ढा खोदकर एक कालकोष गाड़ा जा रहा है जिसमें गांव के प्रमुख बाबू साहब और उनके कुनबे के बारे में जानकारी डाली जा रही है। गांव का भोला भाला युवक सूपना अचानक यह मांग उठा देता है कि कालकोष में गांव के सभी लोगों की जानकारी डाली जाये। कालकोष नहीं गड़ पाता। बाबू साहब इस बात से बहुत खफा हो जाते हैं। गांव में सूपना और बाबू साहब के बीच संघर्ष चालू हो जाता है। सूपना अपना सपना पूरा करने की कोशिश करता है और बाबू साहब के अपने पैंतरे चलते हैं। एक बार तो सूपना को शहर भागना पड़ता है पर शहर से लौटने पर सूपना का व्यवहार बदल जाता है। कालकोष में सामान्यजनों की जानकारी डाले जाने के बारे में उसका निश्चय और दृढ़ हो जाता है। कालकोष के बहाने बहुत रोचक सामाजिक संघर्ष जन्म लेता है।
नाट्य दल लगभग 15 कलाकारों का है। नाटक की अवधि 1 घंटा 20 मिनिट है।
निर्देशकीय
’’सूपना का सपना’’ मेरा प्रिय नाटक है। इस नाटक को पढ़ने के बाद मैं बेचैन हो गया। इसके कथ्य और कहने के तरीके ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब भी हम इतिहास पढ़ते हैं तो वो केवल किसी राजा महाराजा बादशाह की कारगुजारियों का विवरण होता है। उसमें उन करोड़ों लोगों का कोई विवरण नहीं होता जो उस समय रहे और बिना अपना नाम दर्ज कराये मर गये। किसी शहर गांव या कस्बे में कोई दुर्घटना होती है तो विशिष्ट व्यक्ति हो तो उसका नाम छपता है और नहीं तो केवल संख्या छपती है। ’’दुर्घटना में 22 ग्रामीण मारे गये’’
’’सूपना का सपना’’ में इस बात को उठाया गया है कि इतिहास में कौन जायेगा ? अब तक इतिहास में आम आदमी, उसके दुःख तकलीफ का कोई उल्लेख नहीं है। यदि आम आदमी भी अपने अस्तित्व की चिंता करने लगे तो समाज हिलने लगता है। इतिहास में विद्रोह और क्रांतियां आम आदमी के इसी संघर्ष का परिणाम रही हैं। लू शुन की कहानी में और शाहिद अनवर के इस नाटक में आम आदमी के इसी संघर्ष को अभिव्यक्ति दी गई है। आम आदमी का संघर्ष भी शाश्वत है और खास आदमी का उसे कुचल डालने का षडयंत्र भी शाश्वत है। हमेशा से होता आ रहा है। न उनकी जीत नई है न अपनी हार नई। उसके बावजूद आम आदमी अपनी लड़ाई बंद नहीं करता। परिणाम जानते हुए भी आम आदमी अपनी लड़ाई जारी रखता है। इसी से समाज करवट लेता है।
आज के दौर में जब एक ध्रुवीय दुनिया अस्तित्व में है, बहुत से सूपना जैसे देश अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं। ये लड़ाई उनके लिये सूपना की लड़ाई साबित होगी पर फिर भी लड़ रहे हैं। क्योंकि ऐसी ही किसी लड़ाई के बीच से कभी फ्रांसीसी क्रांति जन्मी थी, कभी रूसी क्रांति और कभी चीनी क्रांति। इसीलिये सूपना का सपना आज का नाटक है।
मैं नाटक दर्शकों के लिये तैयार करता हूं। इसीलिये नाटक के कथ्य, नाटक का कथा प्रवाह, नाटक के तनाव को पूरी तरह से बनाये रखता हूं परंतु दर्शक के लिये नाटक की रोचकता और सरलता को भी बनाये रखता हूं। इसमें किसी तरह का कोई समझौता नहीं करता हूं। तकनीक या कठिन दृश्यबंध से दर्शकों को आतंकित करना मेरा अभीष्ट नहीं है। मेरा दर्शक कस्बों और छोटे शहरों में फैला है जहां न कोई मंच है न नाटक देखने की परंपरा। उनके बीच में नाटक अपना स्तर बनाये रखते हुए अपनी बात कह जाये यही मेरा अभीष्ट है। जबलपुर में काम करते हुए प्रशिक्षित अभिनेता और तकनीकी विशेषज्ञ मिलना कठिन है पर मेरी कोशिश होती है कि नाटक के हर पक्ष में पूरा ध्यान दिया जाये और उसे पूर्ण बनाया जाये। इस नाटक में संगीत सहयोगी पक्ष है, प्रमुख नहीं है। इसीलिये संगीत रिकाॅउैड रखा गया है। मेरी कोशिश है कि सूपना के संघर्ष को आम दर्शक तक पंहुचा सकूं। ।
मंच पर
सूपना संजय गर्ग
बाबू साब सीताराम सोनी
माया मास्टरनी इंदु सूर्यवंशी
ग्रामीण सुरभि, के के जैन
मंच परे
वस्त्र विन्यास वसंत काशीकर, संजय गर्ग,
रूप सज्जा इंदु सूर्यवंशी, लक्ष्मी राजपूत
मंच प्रबंधन अजय जायसवाल
प्रकाश /संगीत वसंत काशीकर,
प्रस्तुति प्रबंधन बांकेबिहारी ब्यौहार, हिमंशु राय,
लेखक शाहिद अनवर
निर्देशक वसंत काशीकर

मानबोध बाबू

मानबोध बाबू
चन्द्रकिशोर जायसवाल की कहानी ’मानबोध’ बाबू का नाट्य रूपांतर
मानबोध बाबू मस्तमौला आदमी हैं और पूरे समय बोलते हैं। जीवन के हर पक्ष पर इनके विचार हैं और अनुभव हैं। इनका विचार है कि जो ये जानते हैं वही सच है और सभी को उसे मानना है। इनके हिसाब से चलें तो दुनिया में सब पाकेटमार हैं। इन्होंने मुम्बई, दिल्ली और कलकत्ता तीनों महानगर देखे हैं। और इनने अपने घर में अपने बच्चों का पिता के प्रति दुव्र्यवहार देखा है। इसीलिये ये हर मिलने वाले को सावधान करते हैं। स्वतंत्र स्वालंबी जीवन जीने के लिये प्रेरित करते हैं। जीवन में किताब पढ़ने से लेकर कबीर गायन तक हर बात का शौक रखते हैं और लोगों को प्रेरणा देते हैं। मोहनलाल इनके साथ मुम्बई से कलकत्ता तक सफर करते हैं। निराले अनुभव से गुजरते हुए कलकत्ता उतर कर कुछ ऐसा घटता है जो दर्शक को भोंचक्का कर देता है और मानबोध बाबू को एक पहेली बना देता है।
मानबोध बाबू एक बातूनी चरित्र है। उनकी बातें गहरी मानवीय संवेदना से जुड़ी हैं। उनका विश्लेषण गहरी मानवीय चिंता प्रकट करता है। गांव और जंगलों में रहने वाले उनकी दृष्टि में बहुत सुखी हैं क्योंकि दिन रात मेहनत करने और रूखी सूखी खाने के बावजूद वो लोग मानवीय संवेदनाओं से भरपूर हैं। शहरों में अपमानजनक जीवन जीने से बेहतर है गांवो और जंगलों में कम सुविधाओं के साथ प्रकृति के साहचर्य में आत्मसम्मान के साथ रहना। मानबोध बाबू की यात्रा केवल एक यात्रा नहीं है जीवन जीने की कला का दर्शन भी है और लोक व्यवहार का शिक्षण भी।

पात्र
मंच पर
मानबोध बाबू सीताराम सोनी
मोहनलाल संजय गर्ग
पति अभिषेक काशीकर
पत्नी इन्दु सूर्यवंशी
समूह दृश्य क्षितिज राय, अभिषेेक काशीकर, इन्दु सूर्यवंशी, के के जैन, संजय जैन,अमित राजपूत, मोहित पंचभाई, आशुतोष यादव अजय जायसवाल,आकाश माली, राजीव बारी, शुभम कौरव, ओ पी साहू, लक्ष्मी राजपूत,
नेपथ्य
मंच सज्जा अभय पाटकर
वस्त्र विन्यास वसंत काशीकर, संजय गर्ग
रूप सज्जा संजय गर्ग
प्रकाश परिकल्पना व
परिचालन आनंद मिश्रा
ध्वनि व संगीत प्रभाव सचिन उपाध्याय
मूल कथा चन्द्रकिशोर जायसवाल
नाट्यांतर संजय गर्ग
मंचन प्रबंधन हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार
प्रस्तुति परिकल्पना व
निर्देशन वसंत काशीकर
मूल कथा चंद्रकिशोर जायसवाल
रूपांतर संजय गर्ग
निर्देशक वसंत काशीकर
अब तक
जबलपुर में चार मंचन
हरदा मध्यप्रदेश राज्य नाट्य समारोह
उदयपुर, जोधपुर, बीकानेर
पश्चिम क्षेत्र संास्कृतिक केन्द्र राष्ट्रीय नाट्य समारोह
नागपुर
दक्षिण मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र राष्ट्रीय नाट्य समारोह
रंगाधार भोपाल राष्ट्रीय नाट्य समारोह
इप्टा म प्र राज्य सम्मेलन शहडोल
भारत पवर्, मंडला

Friday, October 23, 2009

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह



रोचक नाटकों का सफल समारोह
विवेचना मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर में काम करने वाली विख्यात संस्था है। विवेचना का गठन स्व हरिशंकर परसाई व उनके साथी बुद्धिजीवियों ने सन् 1961 में किया था। तब इसका उद्देश्य ज्वलंत मुद्दों व समस्याओं पर विचार गोष्ठियों का आयोजन करना था ताकि सच्चाई लोगों के सामने आए। आम जन सही तथ्यों को जानें और अपने स्वयं के विवेक व तर्क से निर्णय लें। सन् 1975 से विवेचना के नाट्य दल ने काम करना शुरू किया। तब से आज तक हर साल एक या दो नए नाटक और उनके मंचन, नाट्य कार्यशालाएं,बच्चों के शिविर आदि सभी कुछ निरंतर जारी है। विवेचना के नाटक देश के प्रतिष्ठित मंचों पर हुए हैं और बहुत सराहे गये हैं।
सन् 1994 से विवेचना द्वारा राष्टीय नाट्य समारोह का आयोजन शुरू किया गया। पहले साल का पहला दिन हबीब तनवीर जी के नाम रहा। उन्होंने ही नाट्य समारोह का उद्घाटन किया और देख रहे हैं नैन का शो किया। दूसरे दिन बंसी कौल, तीसरे दिन बा व कारंत और चैथे दिन सतीश आलेकर के नाटक मंचित हुए। इतनी मजबूत बुनियाद के साथ शुरू हुए विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में अब तक देश के प्रमुख नाट्य निर्देशकों और नाट्य संस्थाओं व संस्थानों के नाटक मंचित हुए हैं। सर्वश्री हबीब तनवीर, बा.व.कारंत, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर नादिरा बब्बर, दिनेश ठाकुर, दर्पण मिश्रा, उषा गांगुली, देवेन्द्र पेम, अरविंद गौड़, पियूष मिश्रा, रंजीत कपूर,, अनिलरंजन भौमिक, बलवंत ठाकुर, श्रीमती गुलबर्धन, अलखनंदन, लईक हुसैन, अशोक राही, विवेक मिश्र अजय कुमार, मानव कौल और वसंत काशीकर आदि द्वारा निर्देशित नाटक विवेचना के विगत समारोहों में मंचित हो चुके हैं। विवेचना के रा न समारोह में देश के अधिकांश प्रसिद्ध निर्देशक व नाट्य संस्थाएं शिरकत कर चुकी हैं।
विवेचना का रानास अब हर वर्ष दशहरे और दीपावली के बीच सप्ताह में बुधवार से रविवार तक आयोजित होता है। इस पांच दिनी समारोह में प्रायः 6 या 7 नाटक मंचित होते हैं। अब तक लगभग सौ नाटक मंचित हो चुके हैं। जबलपुर में विवेचना के रा ना स का एक बड़ा दर्शक वर्ग तैयार हुआ है। विवेचना का रा ना स शहर से कुछ बाहर की ओर स्थित म प्र वि मं के तरंग ए सी आॅडीटोरियम में आयोजित होता है। फिर भी नाटक शुरू होने से पहले पूरा हाॅल भर जाता है। बाहर कारों मोटर साइकिलों की कतार लग जाती है। ना समारोह के लिए टिकिट बेचना अब कोई समस्या नहीं है और न दर्शकों की संख्या की चिन्ता करना होती है। अंतिम दो दिनों में पचासों दर्शकोे को सीट के अभाव में वापस जाना होता है।
नाटक के प्रचार के लिये अखबार में एक समाचार ही पर्याप्त होता है जिसे साल भर इंतजार कर रहे दर्शक एक नजर में पढ़कर अपना कार्यक्रम तय कर लेते हैं। शहर में बैनर और आकर्षक पोस्टरों के माध्यम से भी दर्शकों को सूचना दी जाती है। इसके बाद दर्शक एक दूसरे को सूचना देना शुरू कर देते हैं और पूरे शहर में नाट्य समारोह देखने का एक माहौल बन जाता है। ये शहर की एक ऐसी गतिविधि बन चुकी है जिसमें जाना प्रतिष्ठा का प्रश्न है। और जो न गया हो उसके लिए हीनताबोध का।
विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 7 अक्टूबर को ’मित्र’ नाटक के मंचन के साथ शुरू हुआ। इसका निर्देशन व प्रमुख भूमिका वसंत काशीकर ने निबाही। यह नाटक डा शिरीष आठवले ने लिखा है। यह एक ऐसे बुजुर्ग की कहानी है जिसे एक झगड़े में लगी चोटों के इलाज के समय लकवा जैसी बीमारी हो जाती है। इसके इलाज के लिए एक नर्स रखी जाती है जिससे दादा साहब बहुत चिढते हैं। नर्स सावित्री बाई रूपवते अपना काम करती है। धीरे धीरे दादा साहेब सामान्य होने लगते हैं। दादा साहब की लड़की उन्हें अमेरिका ले जाना चाहती है पर वे जाना नहीं चाहते। उसके लिए वे नर्स की मदद से अतिरिक्त मेहनत करते हैं और लगभग पूरी तरह ठीक हो जाते हैं। लड़की को विश्वास नहीं होता और वो उन्हें फिर भी अमेरिका ले जाना चाहती है। डाक्टर समझाता है कि ये चमत्कार दादासाहेब की इच्छा शक्ति का परिणाम है। मित्र नाटक मानवीय संबंधों को बहुत बारीकी से रेशा रेशा अलग करता है। दादा साहब पुरोहित और सावित्री बाई रूपवते के संबंध एक मरीज और नर्स के हैं। मगर बार बार ये संकेत देते हैं कि कुछ और भी हो सकता है। नाटककार ने सावित्री बाई रूपवते के रूप में एक अद्भुत आदर्श चरित्र विकसित किया है। नाटक में पिता पुत्री पिता पुत्र और पति पत्नी के संबंधों के अलग अलग रंग उभर कर आते हैं। लड़की के रोल में उदिता चक्रवर्ती, डा के रूप में संजय गर्ग, पुत्र के रूप में अभिषेक काशीकर ने सहज अभिनय किया है। नाटक मानवीय संबंधों के आदर्शांे को स्थापित करने में सफल है। विवेचना की यह प्रस्तुति बहुत पसंद की गई।
दूसरे दिन 8 अक्टूबर 2009 को महमूद फ़ारूख़ी और दानिश हुसैन ने दास्तानगोई प्रस्तुत की। उर्दू में कथाकथन की पांच सौ साल पुरानी परंपरा है। इसे इन दो कलाकारों ने पुनरूज्जीवित किया है। शुरू में महमूद ने दर्शकों को बताया कि वो क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं। दास्तानगोई क्या है और उसका इतिहास क्या है ये बताया गया। बातचीत पूरी शुद्ध उर्दू में थी। दास्तानें शुरू हुईं तो दर्शकों को कुछ समय लगा इस फ़न से जुड़ने में। थोड़ी देर बाद दर्शक और कलाकारों के बीच एक संबंध सेतु बन गया और फिर दर्शकों ने दास्तानों का पूरा आस्वाद लिया। अंतिम दास्तान 1947 के बंटवारे से संबंधित था। इससे दर्शकों ने बहुत जुड़ाव महसूस किया। दास्तानें केवल दास्तानें न रह कर एक पूरा संदेश बन गईं भाइ्र्र्रचारे का, सर्वधर्मसद्भाव का। धर्मान्धता और संकीर्णता पर दोनों कलाकारों ने बहुत समझदारी से हमला किया।
तीसरे दिन 9 अक्टूबर 2009 को रंगविदूषक, भोपाल के कलाकारों ने बंसी कौल के निर्देशन में ’तुक्के पे तुक्का’ का मंचन किया। यह नाटक करीब 15 वर्षों से हो रहा है और इसके मंचन देश और दुनिया के अनेक देशों में हुए हैं। यह एक चीनी लोककथा पर आधारित है। इस नाटक को राजेश जोशी और बंसी कौल ने लिखा है। बंसी जी के नाटकों की अपनी विशिष्टता है। रंगीन लाइट्स, रंगीन वेशभूषा, विदूषकों से रंगीन मेकअप वैसे भी दर्शकों को अच्छा लगता है। फिर कहानी को कहने के लिये ये विदूषक कलाकार सर्कसनुमा कम्पोजिशंस बनाते हैं। नाटक और मंच पर पूरे समय गति बनी रहती है। तुक्के पे तुक्का का नायक तुक्कू है जो गांव का एक चतुर युवक है जिसकी पढ़ाई लिखाई में कोई रूचि नहीं है पर वो चतुर है। वो शहर आकर राजा का चहेता बन जाता है और फिर अंततः घटनाक्रम ऐसा चलता है कि वो सुल्तान बन जाता है। नाटक में डिज़ायन कथ्य पर बहुत ज्यादा हावी दिखाई पड़ता है। नाटक की असली उपलब्धि अंजना पुरी का गायन है जो नाटक को बहुत ऊंचा उठाता है।
नाट्य समारोह के चैथे दिन 10 अक्टूबर 2009 को दिल्ली के पिरोज ट्रुप द्वारा ’मिर्जा ग़ालिब’ का मंचन किया गया। इसमें मिर्जा गालिब का किरदार प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता टाॅम आॅल्टर ने निभाया। यह नाटक मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी बयान करता है। हाली को मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी आत्मकथा लिखवाते हैं और इसी दौरान मंच पर घटनाएं प्रदर्शित होती जाती हैं। लगभग दो घंटे के इस नाटक में ग़ालिब के जीवन को परत दर परत सामने लाया गया हैं। ग़ालिब के जीवन की अच्छी बुरी सभी घटनाओं को नाटक में दिखाया गया है। नाटक में टाॅम आॅल्टर ने अपनी अदाकारी से दर्शकों को बहुत प्रभावित किया।
नाट्य समारोह के अंतिम दिन 11 अक्टूबर को दिल्ली के दि एन्टरटेनर्स ने रंजीत कपूर के निर्देशन में ’अफ़वाह’ का मंचन किया। शहर के डिप्टी मेयर वीरेन्द्र नागपाल और कविता नागपाल अपनी शादी की दसवीं सालगिरह पर एक पार्टी देते हैं। इस पार्टी में पंहुचने वाले मेहमान एक अजीब मुसीबत में फंस जाते हैं जब वे पाते हैं कि उनका मेजबान खुद की चलाई गोली का शिकार हो गया है। उसकी पत्नि फरार हो चुकी है। राजेन्द्र वीरेन्द्र का वकील है इसीलिए वह इस घटना को छुपाने की कसरत शुरू करता है और शुरू होता हैै मनोरंजक घटनाओं, ग़लतफ़हमियों का लंबा सिलसिला। नाटक के मध्य तक तेज गति बनाए रखी गई और दर्शकों ने खूब मजा लिया। नाटक के संवाद मनोरंजक हैं। नाटक में सुमन अग्रवाल, अश्विन चड्डा, पूनम गिरधानी, हेमंत मिश्रा, रूमा घोष, अमिताभ श्रीवास्तव, मुक्ता सिंह, वामिक अब्बासी, शैलेन्द्र जैन और तबस्सुम ने बहुत अच्छा अभिनय किया। नाटक ने दर्शकों को आनंदित किया।
विवेचना के सोलहवें नाट्य समारोह में हर नाटक में एक स्वस्थ संदेश था। जबलपुर में परंपरा बन चुके इस समारोह का सफल समापन लगभग एक हजार दर्शकों की उपस्थिति में हुआ। विवेचना के इस समारोह में जहां मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों से रंगकर्मी नाटकों को देखने आए वहीं नाट्य समारोह के आयोजन का साक्षी बने अजित राय, संगम पांडेय और शिवकेश। नाट्य समारोह के अंत में विवेचना के सचिव हिमांशु राय और बांके बिहारी ब्यौहार व म प्र वि मंडल की ओर से श्री संतोष तिवारी ने सभी सहयोगियों, कार्यकर्ताओं और दर्शकों का आभार व्यक्त किया।

Saturday, September 26, 2009

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह

विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 07 से 11 अक्टूबर तक
पांच श्रेष्ठ नाटकों का मंचन होगा
जबलपुर में परम्परा बन चुके विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आयोजन इस वर्ष अक्टूबर माह में होने जा रहा है। इस आयोजन का यह सोलहवां वर्ष है। अब तक यह देश का अकेला आयोजन है जिसे अशासकीय तौर पर आयोजित किया जाता है और सन् 1994 से निरंतर आयोजित हो रहा है। जबलपुर के इस आयोजन की चर्चा अब पूरे देश में है और सभी निर्देशक व नाट्य संस्थाएं इसमें हिस्सेदारी करना चाहती हैं। विवेचना की इस समारोह श्रृखंला में सर्वश्री स्व. बा व कारंत, हबीब तनवीर, बंसी कौल, सतीश आलेकर, देवेन्द्रराज अंकुर, बलवंत ठाकुर, नादिरा बब्बर, उषा गांगुली, रंजीत कपूर, अरविंद गौड़ आदि वरिष्ठ नाट्य निर्देशकों के साथ ही इलाहाबाद, पटना, भोपाल, रायगढ़, भिलाई, उज्जैन आदि शहरों की नाट्य संस्थााओं के नाटकांें के मंचन हुए हैं। विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद व विवेचना का संयुक्त आयोजन है। यह समारोह तरंग प्रेक्षागृह, रामपुर में आयोजित होगा। इस वर्ष पांच दिवसीय समारोह में पांच नाटक मंचित होंगे।
विवेचना का सोलहवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 07 अक्टूबर से 11 अक्टूबर 2009 तक आयोजित है। ेविवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियां प्रारंभ कर दी गई हैं। प्रथम दिन 7 अक्टूबर 2009 बुधवार को ’विवेचना’ जबलपुर के द्वारा मित्र नाटक मंचित किया जायेगा। डा शिरीष आठवले लिखित इस रोचक और भावनापूर्ण नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। दूसरे दिन 8 अक्टूबर 2009 को महमूद फ़ारूखी के निर्देशन में दास्तानगोई मंचित किया जायेगा। उत्तर भारत में उर्दू में कथाकथन की पांच सौ साल पुरानी परंपरा है। दास्तानगोई में इसी फन का मुजाहरा किया गया है। 9 अक्टूबर को प्रसिद्ध निर्देशक बंसी कौल ,भोपाल के नाटक तुक्के पे तुक्का का मंचन होगा। यह नाटक अपने मजेदार प्रस्तुति के लिए चर्चित है। चैथे दिन 10 अक्टूबर को डा एम सईद आलम दिल्ली के निर्देशन में मिर्जा गालिब नाटक मंचित होगा। इस नाटक में प्रमुख भूमिका टाॅम आल्टर निबाहेंगे। इस नाटक के दुनिया भर में मंचन सराहे गये हैं। अंतिम दिन 11 अक्टूबर रविवार को रंजीत कपूर के निर्देशन में अफ़वाह नाटक का मंचन होगा। यह एक मनोरंजक नाटक है जिसमें मंच पर दो मंजिला सैट लगाया जाएगा। इस नाट्य समारोह में आमंत्रित दास्तानगोई, मिर्जा गालिब और अफवाह नाटकों के मंचन दुनिया भर में हुए हैं। इस समारोह में रंग प्रदर्शनी, रंगसंगोष्ठी, व रंगसंगीत का आयोजन भी होगा। नाट्य समारोह को कवर करने के लिए दिल्ली और मुम्बई से कला समीक्षक जबलपुर आ रहे हैं।
विवेचना के राष्ट्रीय नाट्य समारोह की तैयारियां जोर शोर से जारी हैं। विवेचना के हिमांशु राय बांके बिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर, अनिल श्रीवास्तव, संजय गर्ग, सीताराम सोनी आदि ने सभी दर्शकों और शुभचिंतकांे से हमेशा की तरह नाट्य समारोह में सकिय भागीदारी का अनुरोध किया है।

Thursday, May 14, 2009

विवेचना

विवेचना
जबलपुर में सन् 1960 के आसपास का समय सांस्कृतिक रूप से सक्रियता का समय था। शहर में युवकों और प्रौढ़ों की एक बहुत बड़ी संख्या ऐसी थी जो राजनैतिक रूप से बहुत सजग थे और लगातार साहित्यिक, राजनैतिक गतिविधियों पर आलोचक की नजर रखते थे। निरंतर चर्चाओं और गोष्ठियों का क्रम चला करता था। कुछ अड्डे भी थे जहां लोग जमा होते थे और बातचीत हुआ करती थी। प्रोफेसर ताम्हनकर ने इन्हीं दिनों एक ऐसे मंच की जरूरत महसूस की जो विभिन्न ज्वलंत विषयों पर परिसंवाद आयोजित करे। विशिष्ट वक्ताओं को बुलाकर व्याख्यान आयोजित किये जा सकें। इसी विचार के साथ विवेचना का जन्म हुआ। उस समय विवेचना में सक्रिय हुए सर्वश्री हरिशंकर परसाई, मायाराम सुरजन, शेषनारायण राय, डा रमन, महेन्द्र वाजपेयी, हनुमान वर्मा, ज्ञानरंजन, डा के के वर्मा, डा ए पी सिंह आदि।
विवेचना के गठन के बाद परिसंवादों का लंबा सिलसिला शुरू हुआ। भारत को अणुबम बनाना चाहिये या नहीं, चेकोस्लाविया प्रकरण, खाद्यान्न व्यापार का अधिग्रहण, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जैसे अनेक प्रश्नों पर गंभीर परिसंवाद आयोजित किये गये। चेकोस्लाविया प्रकरण पर बोलने के लिये उड़ीसा के तत्कालीन राज्यपाल विशंभरनाथ पांडे आये थे।
प्रो ताम्हनकर विवेचना के जन्मदाता और प्रमुख संयोजक थे। प्रायः व्याख्यान नगर निगम के वर्तमान बैठक कक्ष में आयोजित होते थे जो उस समय सार्वजनिक बैठकों के लिये इस्तेमाल किया जाता था। गोष्ठियां लगातार जारी रहीं यद्यपि पुराने लोग कम होते गए पर नए सक्रिय लोगों का आना भी जारी रहा। सन् 1974-75 के आसपास विवेचना में प्राध्यापकों का एक नया समूह सक्रिय हुआ। एक नया विचार उठा कि बात को कहने के लिये सभागार से बाहर निकल कर बाहर सड़क पर आया जाए। इस विचार से शुरूआत हुई नाटकों की। विवेचना में कुछ युवा और छात्र जुडे़। अलखनंदन विवेचना में आए और उनने नाटकों के निर्देशन का बीड़ा उठाया। उस समय एम ए के छात्र शशांक ने एक रात में नुक्कड़ नाटक लिखा ’जैसे हम लोग’ और 1 मई 1975 को इस नाटक का प्रदर्शन नगर की सड़कों चौराहों पर किया गया। जबलपुर शहर में पहला अवसर था जब नुक्कड़ नाटक मंचित हुआ। यही समय था जब संस्कृति विभाग ने मध्यप्रदेश कला परिषद ( राज्य संगीत नाटक अकादमी ) के अंतर्गत गतिविधियां शुरू की थीं। पहले नाट्य समारोह से विवेचना के नाटक कला परिषद के समारोहों के अनिवार्य अंग बन गये। उसके बाद विवेचना में प्रतिवर्ष कम से कम एक नया नाटक तैयार हुआ। पहला मंच नाटक गिनी पिग (1976) था। इसका मंचन सतना में भी हुआ। फिर तैयार हुआ फज्ल ताबिश का नाटक डरा हुआ आदमी (1977) इसके शो रायपुर व लखनऊ में भी हुए। गोदो के इंतजार में (1978) विवेचना की महत्वपूर्ण प्रस्तुति रही जिससे  अलखनंदन एक प्रतिभाशाली निर्देशक के रूप में सामने आए। इसका भोपाल मंचन आज भी याद किया जाता है। लखनऊ से आए चितरंजन दास के निर्देशन में हमीदुल्ला का नाटक दरिन्दे(1978) तैयार हुआ। यह नाटक बहुत लोकप्रिय हुआ और इसके मंचन सागर शहडोल अमलाई आदि में हुए और बहुत चर्चित हुआ। दुलारी बाईे(1979) का मंचन भी विवेचना की उपलब्धि रहा। मणिमधुकर के कम चर्चित नाटक ’इकतारे की आंख’ े(1979) का प्रथम मंचन विवेचना ने किया। इसका शो श्रीराम सेंटर दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य समारोह (1979)में किया गया। फज्ल ताबिश का दूसरा महत्वपूर्ण नाटक अखाड़े से बाहर (1980) तैयार हुआ जिसका मंचन ग्वालियर, भोपाल, रायपुर आदि में भी हुआ। इसी समय भोपाल में भारत भवन रंगमंडल बना जिसमें जबलपुर से अलखनंदन, गंगा मिश्रा और राजकुमार कामले चुने गये। अलखनंदन के भारत भवन चले जाने के बाद विवेचना के नाटकों निर्देशन अरूण पांडेय ने किया। इस दौरान बादल सरकार का नाटक जुलूस(1981) तैयार किया गया। इसके मंचन बहुत हुए। उज्जैन, रीवां मंे इसके यादगार मंचन हुए। इसी समय 1983 में बंसी कौल जबलपुर आए और कालिदास अकादमी के लिये आचार्य दण्डी का नाटक ’दशकुमार चरित’ तैयार कराया। इसका मंचन कालिदास समारोह उज्जैन में हुआ। इसमें प्रमुख भूमिका हिमांशु राय की थी। सन् 1983 मंे अलखनंदन ने ’बकरी’ नाटक तैयार करवाया। इसके मंचन बहुत सराहे गये। 1984 में अलखनंदन ने भोपाल से आकर दो नुक्कड़ नाटक तैयार कराये। ’राजा का बाजा’ और ’मशीन’। तपन बैनर्जी ने ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ का नाट्य रूपांतर किया और उन्हीं के निर्देशन में यह नाटक तैयार हुआ। इन तीन नुक्कड़ नाटकों के सैकड़ों प्रदर्शन जबलपुर व पूरे मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों के साथ ही देश में अनेक शहरों में हुए। इससे विवेचना को राष्ट्रीय पहचान मिली। सन् 1985 में वसंत काशीकर के निर्देशन में ’पोस्टर’ तैयार हुआ। तपन बैनर्जी के निर्देशन में ’राम रचि राखा’ (1986) और ’एक अराजक की अचानक मौत’ (1987)तैयार किये गये और बहुत पसंद किये गये। इसी बीच आलोक चटर्जी जो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में छात्र थे कई बार जबलपुर आए। उन्होंने तीन कहानियों के मंचन किए। विवेचना के कलाकारों के साथ ’सगीना महतो’ (1984) नाटक तैयार कराया। बाद में ’इडीपस’ और संस्कृत नाटक ’उरूभंगम’ तैयार कराया।  इसी दौर में विवेचना ने ’लोककथा’, ’हरदौल’, ’भोले भड़या’, ’दूर देश की कथा’, जैसे नाटक भी तैयार किये जिनके बहुत मंचन प्रदेश के अनेक शहरों में हुए। 1989 में विवेचना को संगीत नाटक अकादमी की यंग डायरेक्टर्स योजना के अंतर्गत अरूण पांडेय के निर्देशन में ’ईसुरी’ नाटक करने का मौका मिला। इसे बाद में ’हंसा उड़ चल देस बिराने’ नाम दिया गया। यह नाटक बहुत प्रसि़द्ध हुआ और पूरे देश में इसके तीस से अधिक के लगभग मंचन हुए। इस नाटक के मंचन दिल्ली, चंडीगढ़, जम्मू, शिमला, पटियाला, कुरूक्षेत्र, हुबली, सागर, भोपाल, रायगढ़, बिलासपुर, जयपुर, आदि शहरों में हुए। विवेचना ने सन् 1990 में ’रामलीला’ और ’सैंया भये कोतवाल’ आलोक चटर्जी के निर्देशन में तैयार किये। ’रामलीला’ के अनेक मंचन हुए। ’हानूश’ (1991) और ’थैंक यू मिस्टर ग्लाड’ (1993) विवेचना की अनूठी प्रस्तुति साबित हुए और इनके बहुत से मंचन हुए। ’हानूश’ में प्रमुख भूमिका नवीन चौबे ने और ’थेंक यू मि ग्लाड’ में प्रमुख भूमिका हिमांशु राय ने निबाही। इस दौरान हुए नाट्य शिविरों में ’मखना के बापू’, ’मोटेराम का सत्याग्रह’ आदि की भी प्रस्तुतियां हुईं। विवेचना का चर्चित नाटक ’निठल्ले की डायरी’ परसाई जी की रचनाओं का कोलाज है जो 1996 में तैयार हुआ और आज तक इसके सर्वाधिक मंचन हुए हैं। नवीन चौबे के निर्देशन में परसाई जी की रचनाओं पर ’मैं नर्क से बोल रहा हूं’ (1998) तैयार हुआ जिसके मंचन लोकप्रिय हुए। सन् 1999 में उदयप्रकाश की कहानी पर अरूण पांडेय के निर्देशन में ’और अंत में प्रार्थना’ तैयार हुआ। सन् 2000 में अरूण पांडेय के निर्देशन में ’चौक परसाई’ जो परसाई जी की रचनाओं का था कोलाज तैयार किया गया। जावेद जैदी, भोपाल के निर्देशन में 2002 में ’मुआवजे’ नाटक तैयार होकर मंचित हुआ।
विवेचना ने अरूण पांडेय के निर्देशन में मुक्तिबोध की रचनाओं पर ’तुम निर्भय ज्यों सूर्य गगन में’ कविता मंचन तैयार किया जिसपर दूरदर्शन ने फिल्म भी बनाई। अनेक कवियों की कविताओं के मंचन किये गये।
सन् 2002 तक एक साथ काम करने के बाद सन् 2003 से अरूण पांडेय और नवीन चौबे ने ’विवेचना रंगमंडल’ के नाम से मूल संस्था ’विवेचना’ से अलग होकर काम करना शुरू कर दिया। उनका 2006 का अलग पंजीयन है। नामों के साम्य के कारण  मूल विवेचना संस्था के बारे में गलतफहमी होती रहती है। हिमांशु राय व बांकेबिहारी ब्यौहार ने इस स्थिति से उबरकर विवेचना को सम्हाला और आज भी मूल संस्था विवेचना अपने श्रेष्ठ नाट्य मंचनों और श्रेष्ठ आयोजनों के कारण भारत में सम्मान के साथ जानी जाती है।
सन् 2006 में विवेचना के पुराने साथी वसंत काशीकर ने मूल विवेचना संस्था के कलाकारों को जोड़कर नाटकों की तैयारी शुरू की। सन् 2006 में वसंत काशीकर के निर्देशन में विवेचना ने ’मायाजाल’ नाटक तैयार किया। सन् 2007 में वसंत काशीकर के निर्देशन में ’मानबोध बाबू’ तैयार हुआ। सन् 2008 में वसंत काशीकर के निर्देशन में ’सूपना का सपना’ तैयार हुआ। सन् 2009 में ’मित्र’ नाटक मंचित हुआ। सन् 2010 में ’मौसाजी जैहिन्द’ नाटक मंचित हुआ। सन् 2011 में नाटक ’दस दिन का अनशन’ मंचित हुआ। सन् 2012 में नाटक ’सवाल अपना अपना’ का मंचन हुआ। सन् 2013 में बादल सरकार के नाटक ’बड़ी बुआ जी’ का मंचन जबलपुर व इंदौर में हुआ। सन् 2014 में तपन बैनर्जी के निर्देशन में ’कंजूस’ का मंचन हुआ। मायाजाल, मानबोध बाबू, सूपना का सपना, दस दिन का अनशन मंे प्रमुख भूमिकाएं संजय गर्ग और सीताराम सोनी ने निबाहीं। मित्र, मौसाजी जैहिन्द में प्रमुख भूमिका वसंत काशीकर ने निबाहीं। विवेचना के नाटकों के मंचन भोपाल, मंडला, नरसिंहपुर, रायपुर, भिलाई, इलाहाबाद, बनारस, नागपुर, जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कलकत्ता, मुम्बई, दिल्ली, लखनऊ आदि शहरों में हुए हैं। विवेचना को मुम्बई के सुप्रसिद्ध ’काला घोउ़ा फेस्टीवल’ में 2014 व 2015 में लगातार आमंत्रित किया गया जहां विवेचना के नाटक ’मानबोध बाबू’, ’दस दिन का अनशन’ और ’मौसाजी जैहिन्द’ बहुत पसंद किए गए।
विवेचना द्वारा सन् 1983 में पहला नाट्य शिविर आयोजित किया गया। इसमें शहर के 80 युवा शामिल हुए। तब से प्रतिवर्ष नाट्य शिविर का आयोजन एक अनिवार्यता बन गयी। आज जबलपुर में जो लोग रंगकर्म में सक्रिय हैं या पिछले कुछ सालों तक सक्रिय रहे हैं वो सभी विवेचना के किसी न किसी वर्कशाप की देन हैं। वर्ष 2008 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सहयोग से विवेचना ने सुनील सिन्हा के निर्देशन में थियेटर वर्कशाप आयोजित किया। विवेचना द्वारा महाविद्यालयों में एक दिवसीय नाट्य कार्यशाला का आयोजन बहुत लोकप्रिय रहा है। विवेचना द्वारा मेकअप, लाइट सैट आदि तकनीकी विषयों पर कार्यशालाऐं आयोजित की गई हैं। बच्चों की कार्यशालाएं व स्कूलों में बच्चों के लिये कार्यशालाएं नियमित रूप से आयोजित होती हैं।
विवेचना द्वारा सन् 1994 से राष्ट्रीय नाट्य समारोह का आयोजन शुरू किया गया है। सन् 1994 से अब तक बाइस राष्ट्रीय नाट्य समारोहों में अब तक अबतक सर्वश्री हबीब तनवीर, बा.व.कारंत, बंसी कौल, सतीश आलेकर, राज बिसारिया, जुगल किशोर, तनवीर अख्तर, दिनेश खन्ना, नादिरा बब्बर, के एस राजेन्द्रन, उषा गांगुली, अरविंद गौड़, सुरेश भारद्वाज, अशोक बांठिया, पियूष मिश्रा, रंजीत कपूर, अनिलरंजन भौमिक, संजय उपाध्याय, इप्टा भिलाई, वेदा राकेश, नजीर कुरैशी, बलवंत ठाकुर, जावेद जैदी व श्रीमती  गुलबर्धन, अलखनंदन, लईक हुसैन, विजय कुमार, अजय कुमार, विवेक मिश्रा, अशोक राही, वसंत काशीकर, दिनेश ठाकुर, अजित चौधरी, रवि तनेजा, जे पी सिंह मानव कौल,डा एम सईद आलम, रमेश तलवार, अनूप जोशी, इमरान राशिद, त्रिपुरारी शर्मा, महमूद फारूखी, मनीष जोशी, अनूप जोशी, अर्जुनदेव चारण, सुदेश शर्मा, अवनीश मिश्रा, दानिश इकबाल, इश्तियाक आरिफ खान,   द्वारा निर्देशित 115 नाटक मंचित हो चुके हैं। जबलपुर का यह नाट्य समारोह अब पूरे देश में रंगकर्मियों को आकर्षित करता है। विवेचना का नाट्य समारोह बहुत सुनियोजित और सुव्यवस्थित आयोजन है जिसके कारण आज विवेचना के समारोह का आकर्षण पूरे देश में है। विवेचना के समारोह में प्रतिदिन 800 दर्शक आते हैं। विवेचना ने नाटकों के लिए एक बड़ा दर्शक वर्ग विकसित किया है।
विवेचना द्वारा समय समय पर सामयिक विषयों पर संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है। सन् 1982 में विवेचना ने साम्प्रदायिकता पर राष्ट्रीय गोष्ठी का आयोजन किया। सन् 1986 में ’हिन्दी का जातीय गद्य’ पर राष्ट्रीय गोष्ठी आयोजित की गई। सन् 1996 में ’साक्षरता’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई। सन् 1998 में ’हिन्दी थियेटर’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई। सन् 2005 में ’सामाजिक आन्दोलनों में रंगकर्म की भूमिका’ विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित हुई। स्थानीय स्तर पर विवेचना द्वारा प्रतिमाह गोष्ठियों का आयोजन किया जाता है। मिर्जा गालिब पर और विजय तेंदुलकर पर वर्ष 2008 में गोष्ठियां आयोजित हुईं। विश्व रंगमंच दिवस, 23 मार्च भगतसिंह शहादत दिवस पर विवेचना द्वारा प्रतिवर्ष आयोजन किये जाते हैं। प्रतिवर्ष 22 अगस्त को परसाई जन्मदिवस के अवसर पर परसाई जयंती मनाई जाती है जिसमें एक विद्वान का व्याख्यान होता है। विवेचना ने जबलपुर में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन सन् 1980, इप्टा म प्र के दूसरे राज्य सम्मेलन सन् 1984 के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाई।
विवेचना द्वारा सुगम संगीत के आयोजन, शास्त्रीय गायन पर कार्यशाला, लोकनृत्य और लोकगायन पर केन्द्रित आयोजन भी किये जाते हैं। विवेचना द्वारा सुप्रसिद्व फोटोग्राफर ओ पी शर्मा की कार्यशाला और अन्तराष्ट्रीय छायाचित्र प्रदर्शनी के आयोजन किये गये हैं। चित्रकार हरि भटनागर की कला प्रदर्शनी, नगर के चार चिकित्सकों की कला प्रदर्शनी जैसे आयोजन भी विवेचना ने किये हैं।
विवेचना का बाकायदे गठन और रजिस्ट्रेशन सन् 1975 मंे हुआ। प्रो ज्ञानरंजन, प्रो एम बी पटैल, प्रो एम जी पटेरिया, प्रो  मधुमास खरे, प्रो प्रभात मिश्रा, डा श्यामसुंदर मिश्र, डा मलय उस दौर में विवेचना के सूत्रधार और पदाधिकारी रहे। शशंाक, हिमांशु राय, नंदकिशोर पांडेय, अजय घोष, अलखनंदन, राजकुमार ठाकुर, गौरीशंकर यादव, प्रमोद सोलंकी, राम गुलवानी, तपन बैनर्जी, राजेन्द्र दानी, अरूण पांडेय, सीताराम सोनी,राकेश दीक्षित, वसंत काशीकर, बांकेबिहारी ब्यौहार आदि विवेचना के उस दौर के साथी हैं जब विवेचना आकार ले रही थी। इस दौरान जबलपुर शहर के सैकड़ों युवा विवेचना से जुडे़ और अपना अपना योगदान दिया।
इप्टा से विवेचना का विश्ेाष सरोकार है। विवेचना इप्टा की जबलपुर इकाई के रूप में कार्यरत है। विवेचना के सचिव हिमांशु राय इप्टा के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य व मध्यप्रदेश इप्टा के अध्यक्ष हैं। जबलपुर से विवेचना द्वारा इप्टावार्ता मासिक का प्रकाशन किया जाता है। विवेचना द्वारा समय समय पर अनेक पुस्तिकाओं का प्रकाशन किया गया है।
वर्तमान में विवेचना के अध्यक्ष अनिल श्रीवास्तव, राजेन्द्र जैन उपाध्यक्ष व सचिव हिमांशु राय हैं। बांकेबिहारी ब्यौहार कोषाध्यक्ष हैं। विवेचना के कला निर्देशक वसंत काशीकर हैं।
 विवेचना से अलग होकर अरूण पांडेय ने सन् 2003 से विवेचना रंगमंडल के नाम से कार्य करना शुरू किया। मूल संस्था विवेचना से  विवेचना रंगमंडल का कोई संबंध नहीं है। कृपया भ्रमित न हों।

संपर्क हिमांशु राय, सचिव विवेचना, 657 आमनपुर, नरसिंह वार्ड जबलपुर म प्र पिन 482002
फोन 0761 2422070, 09425387580
बांकेबिहारी ब्यौहार 1184, विजयनगर, कृषि उपज मंडी, जबलपुर म प्र 482002
फोन 0761 2644219, 9827215749

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