Saturday, October 25, 2014
विवेचना के नाटकों ने काला घोड़ा फेस्टीवल में मचाई धूम
विवेचना जबलपुर को मुम्बई के सुप्रसिद्ध काला घोड़ा आर्ट्स फेस्टिवल 2014 में आमंत्रित किया गया। यह प्रथम अवसर है जबकि मुम्बई के बाहर की नाट्य संस्था को फेस्टीवल में आमंत्रित किया गया। काला घोड़ा फेस्टीवल सन् 1999 से आयोजित किया जा रहा है। यह उत्सव धीरे धीरे मुम्बई शहर की धड़कन बन गया है। साउथ बाम्बे मुम्बई का ही नहीं विश्व के सबसे मंहगे इलाकों में से एक माना जाता है। साउथ बाम्बे में अंग्रेजों के समय से भी पहले की मुम्बई की संस्कृति और परंपराएं आज भी जीवित हैं। साउथ बाम्बे के नागरिकों ने मिलकर काला घोड़ा फेस्टीवल की शुरूआत की। संस्कृति की रक्षा के अलावा इस फेस्टीवल से होने वाली आय से धरोहरों की रक्षा भी की जाती है। काला घोड़ा फेस्टीवल में नाटक, नृत्य, लोकनृत्य, सुगम व शास्त्रीय गायन, पेन्टिंग, मूर्तिकला, बच्चों के चित्रकला, बच्चों के नाटक, सेमीनार, महिलाओं पर केन्द्रित कार्यक्रम व सेमीनार आदि लगभग 350 आयोजन होते हैं। काला घोड़ा इलाके में लगाया जाने वाला मेले में प्रतिदिन 50 से 70 हजार लोग आते हैं।
विवेचना को दो नाटकों के मंचन हेतु आमंत्रित किया गया। विवेचना की पहली प्रस्तुति ’मानबोध बाबू’ हाउस आॅफ टेल्स, काला घोड़ा में आयोजित थी। इसका समय रात्रि 08.15 का था। 07.15 से ही दर्शक आकर कतार में खड़े हो गये। सुप्रसिद्ध अभिनेता सुनील सिन्हा, अंक की निर्देशक प्रीता ठाकुर, अमन गुप्ता, एकजुट संस्था के हनीफ पाटनी, अंकुर सी आई डी सीरियल के सुप्रसिद्ध डाक्टर सालुंके जिनका असली नाम नरेन्द्र ह,ै गायक आभास जोशी, रवीन्द्र जोशी सभी ने इस नाटक को देखा। रवीन्द्र जोशी ने नाटक में कबीर गायन भी किया। जब हाॅल पूरा भर गया और तिल भर भी जगह नहीं रही तो दर्शकों का प्रवेश बंद कर दिया गया। दर्शकों से खचाखच भरे हाॅल में मानबोध बाबू का मंचन हुआ। मानबोध बाबू दो यात्रियों की कहानी है जो मुम्बई से कलकत्ता तक की यात्रा साथ साथ करते हैं। मानबोध बाबू अद्भुत चरित्र है। इनने जीवन को बहुत जतन से भोगा है। इसलिए ये कड़वी सच्चाईयों से वाकिफ हैं। मोहनलाल सीधा सादा आदमी है। मानबोध बाबू यात्रा के दौरान उसे भोगे हुए यथार्थ से परिचित कराते हैं।
नाटक के दौरान लगातार तालियां बजती रहीं और नाटक के अंत में दर्शकों ने खड़े होकर कलाकारों का अभिवादन किया। नाटक में मुम्बई में स्थापित और संघर्षरत मध्यप्रदेश के कलाकार बड़ी संख्या में आए।
विवेचना का दूसरा नाटक ’दस दिन का अनशन’ एम सी घिया हाॅल काला घोड़ा में आयोजित था। 7 फरवरी 2014 को आयोजित इस शो में नादिरा बब्बर, प्रीता ठाकुर, सुनील सिन्हा, आदि विशेष रूप से पधारे। मंचन संध्या 5.30 बजे आयोजित था। 5 बजे से ही दर्शकों की कतार लग गई और मंचन के वक्त पूरा हाॅल खचाखच भरा था। दर्शकों ने दस दिन का अनशन का भरपूर आनंद लिया। दस दिन का अनशन परसाई जी की इसी नाम की कहानी का नाट्य रूपांतर है। विवेचना ने इसे 2 वर्ष पूर्व तैयार किया था। इसके 25 से अधिक मंचन हो चुके हैं। नाटक में हास्य और व्यंग्य का अच्छा समायोजन है। एक लफंगा बन्नू राधिका बाबू की पत्नी सावित्री के पीछे पड़ जाता है। उसकी पिटाई होती है तो वो हरिप्रसाद नेता के पास जाता है। वो उसेे बाबा सनकीदास के पास ले जाते हैं जो उन्हें अनशन पर बैठा देता है। इस नाटक की विशेषता यह है कि इसे 50 वर्ष पूर्व लिखा गया पर लगता है जैसे आज की परिस्थितियों पर आज लिखा गया है। नाटक को दर्शकों ने खूब पसंद किया और आयोजकों ने कहा कि विवेचना को प्रतिवर्ष काला घोड़ा फेस्टीवल में अपनी प्रस्तुतियों के साथ आना चाहिए।
काला घोड़ा फेस्टीवल में विवेचना को आमंत्रण और विवेचना के नाटकों का सफल मंचन एक मील का पत्थर साबित हुआ है। विवेचना द्वारा मुम्बई के लिए एक विशेष ब्रोशर छापा गया। जिसे वहंा दर्शकों के बीच वितरित किया गया। विवेचना के नाटकों को काला घोड़ा फेस्टीवल के कार्यक्रम में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। विवेचना के नाटक ’दस दिन का अनशन’ की समीक्षा अंग्रेजी दैनिक ’हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रमुखता से सचित्र प्रकाशित हुई।
विवेचना को दो नाटकों के मंचन हेतु आमंत्रित किया गया। विवेचना की पहली प्रस्तुति ’मानबोध बाबू’ हाउस आॅफ टेल्स, काला घोड़ा में आयोजित थी। इसका समय रात्रि 08.15 का था। 07.15 से ही दर्शक आकर कतार में खड़े हो गये। सुप्रसिद्ध अभिनेता सुनील सिन्हा, अंक की निर्देशक प्रीता ठाकुर, अमन गुप्ता, एकजुट संस्था के हनीफ पाटनी, अंकुर सी आई डी सीरियल के सुप्रसिद्ध डाक्टर सालुंके जिनका असली नाम नरेन्द्र ह,ै गायक आभास जोशी, रवीन्द्र जोशी सभी ने इस नाटक को देखा। रवीन्द्र जोशी ने नाटक में कबीर गायन भी किया। जब हाॅल पूरा भर गया और तिल भर भी जगह नहीं रही तो दर्शकों का प्रवेश बंद कर दिया गया। दर्शकों से खचाखच भरे हाॅल में मानबोध बाबू का मंचन हुआ। मानबोध बाबू दो यात्रियों की कहानी है जो मुम्बई से कलकत्ता तक की यात्रा साथ साथ करते हैं। मानबोध बाबू अद्भुत चरित्र है। इनने जीवन को बहुत जतन से भोगा है। इसलिए ये कड़वी सच्चाईयों से वाकिफ हैं। मोहनलाल सीधा सादा आदमी है। मानबोध बाबू यात्रा के दौरान उसे भोगे हुए यथार्थ से परिचित कराते हैं।
नाटक के दौरान लगातार तालियां बजती रहीं और नाटक के अंत में दर्शकों ने खड़े होकर कलाकारों का अभिवादन किया। नाटक में मुम्बई में स्थापित और संघर्षरत मध्यप्रदेश के कलाकार बड़ी संख्या में आए।
विवेचना का दूसरा नाटक ’दस दिन का अनशन’ एम सी घिया हाॅल काला घोड़ा में आयोजित था। 7 फरवरी 2014 को आयोजित इस शो में नादिरा बब्बर, प्रीता ठाकुर, सुनील सिन्हा, आदि विशेष रूप से पधारे। मंचन संध्या 5.30 बजे आयोजित था। 5 बजे से ही दर्शकों की कतार लग गई और मंचन के वक्त पूरा हाॅल खचाखच भरा था। दर्शकों ने दस दिन का अनशन का भरपूर आनंद लिया। दस दिन का अनशन परसाई जी की इसी नाम की कहानी का नाट्य रूपांतर है। विवेचना ने इसे 2 वर्ष पूर्व तैयार किया था। इसके 25 से अधिक मंचन हो चुके हैं। नाटक में हास्य और व्यंग्य का अच्छा समायोजन है। एक लफंगा बन्नू राधिका बाबू की पत्नी सावित्री के पीछे पड़ जाता है। उसकी पिटाई होती है तो वो हरिप्रसाद नेता के पास जाता है। वो उसेे बाबा सनकीदास के पास ले जाते हैं जो उन्हें अनशन पर बैठा देता है। इस नाटक की विशेषता यह है कि इसे 50 वर्ष पूर्व लिखा गया पर लगता है जैसे आज की परिस्थितियों पर आज लिखा गया है। नाटक को दर्शकों ने खूब पसंद किया और आयोजकों ने कहा कि विवेचना को प्रतिवर्ष काला घोड़ा फेस्टीवल में अपनी प्रस्तुतियों के साथ आना चाहिए।
काला घोड़ा फेस्टीवल में विवेचना को आमंत्रण और विवेचना के नाटकों का सफल मंचन एक मील का पत्थर साबित हुआ है। विवेचना द्वारा मुम्बई के लिए एक विशेष ब्रोशर छापा गया। जिसे वहंा दर्शकों के बीच वितरित किया गया। विवेचना के नाटकों को काला घोड़ा फेस्टीवल के कार्यक्रम में प्रमुखता से प्रकाशित किया गया। विवेचना के नाटक ’दस दिन का अनशन’ की समीक्षा अंग्रेजी दैनिक ’हिन्दुस्तान टाइम्स’ में प्रमुखता से सचित्र प्रकाशित हुई।
विवेचना के नाटक मंचित होंगे काला घोड़ा आर्ट फेस्टिवल मुम्बई में
मध्यप्रदेश की सक्रिय नाट्य संस्था विवेचना के नाटकों को मुम्बई में होने वाले काला घोड़ा आर्ट फेस्टीवल में आमंत्रित किया गया है। यह फेस्टीवल 1 फरवरी से 9 फरवरी 2014 तक आयोजित है। यह फेस्टीवल 1999 से मुम्बई में आयोजित हो रहा है। यह भारत का अनोखा आर्ट फेस्टीवल है जिसमें मुम्बई के आम कला प्रेमी आदमी, मुम्बई की संस्कृति और कलाऐं एक दूसरे के समीप हुआ करते हैं। हर साल आयोजित होने वाला यह उत्सव मुम्बई की आत्मा और स्पंदन की अभिव्यक्ति है। कवि, पेन्टर्स, नर्तक, कलाकार, संगीतकार, और कारीगर अपनी अपनी कलाओं से पूरे उत्सव को जीवंत बना देते हैं। इसका स्वरूप एक कार्निवालनुमा होता है। जिसमें पेन्टर्स, मूर्तिकार, संगीतकार, गायक, और क्राफ्ट्समैन आदि सभी अपना अपना योगदान देते है। मुम्बई के आम आदमी के लिए रोजाना की जिन्दगी से बाहर निकलने का यह अनोखा अवार होता है। इस कार्निवालनुमा उत्सव में हर कोई अपना अपना योगदान देता है। कोलाबा के काला घोड़ा इलाके में आसपास के सड़कों पर कलाकार अपनी कलाकृतियां प्रदर्शित करते हैं तो तरह तरह के लजीज खानों के स्टॉल भी लगे होते हैं। कोई कहीं गा रहा है तो कहीं कोई माइम कर रहा है। आयोजक इसे बहुविध बनाने के लिए इसमें सेमिनार, और विचार सत्र भी आयोजित करते हैं। केवल मुम्बई के लोगों के लिए शुरू हुआ यह उत्सव अब अन्तर्राष्ट्रीय हो चुका है जिसमें देश भर के कलाकारों के अलावा विदेश से आने वाले कलाकार और टूरिस्ट भी शामिल हो रहे हैं। इस वर्ष इसमें शहरी डिजायन और आर्कीटेक्चर पर विशेष जोर दिया गया है। रेम्पर्ट रो पर इसके लिए विशेष प्रदर्शन किये जाएंगे। इस वर्ष के काला घोड़ा फेस्टिवल में 400 से ज्यादा विभिन्न कला प्रदर्शन होने जा रहे हैं।
इस फेस्टीवल में मुम्बई के सभी प्रमुख नाट्यदल अपने प्रदर्शन करते हैं। यह पहला अवसर है जब मुम्बई से बाहर के किसी दल को काला घोड़ा फेस्टीवल के लिए आमंत्रित किया गया है। विवेचना के द्वारा 6 फरवरी को ’दस दिन का अनशन’ और 7 फरवरी को ’मानबोध बाबू’ का मंचन किया जाएगा। वसंत काशीकर द्वारा निर्देशित इन नाटकों के मंचन जबलपुर के अलावा देश के प्रमुख शहरों में हुए हैं और इनकी ख्याति के कारण ही इन्हें काला घोड़ा फेस्टीवल में आमंत्रित किया गया है। ये दोनों विवेचना के मौलिक नाटक हैं। दस दिन का अनशन परसाई जी की इसी नाम की कहानी का नाट्य रूपांतर है जबकि मानबोध बाबू चन्द्रकिशोर जायसवाल की कहानी पर आधारित है। दस दिन का अनशन अनशन की राजनीति पर गहरा कटाक्ष है और मानबोधबाबू जीवन जीने की कला का दर्शन है।
विवेचना के कला निर्देशक वसंत काशीकर, के निर्देशन में संजय गर्ग, सीताराम सोनी, इंदु सूर्यवंशी, ब्रजेन्द्र, आयुश राय,अक्षय ठाकुर, अंशुल साहू, संजीव विश्वकर्मा, अली, शिवेन्द्र, आयुश राठौर, असीम और विवेचना के कलाकार इस समय सघन रिहर्सल में व्यस्त है। विवेचना के सचिव हिमांशु राय व बांकेबिहारी ब्यौहार ने बताया है कि विवेचना को देश की प्रमुख नाट्य संस्थाओं में शुमार किया जाना एक बड़ी उपलब्धि है। काला घोड़ा फेस्टीवल में विवेचना के मंचनों से जबलपुर का नाम ऊंचा होगा।
इस फेस्टीवल में मुम्बई के सभी प्रमुख नाट्यदल अपने प्रदर्शन करते हैं। यह पहला अवसर है जब मुम्बई से बाहर के किसी दल को काला घोड़ा फेस्टीवल के लिए आमंत्रित किया गया है। विवेचना के द्वारा 6 फरवरी को ’दस दिन का अनशन’ और 7 फरवरी को ’मानबोध बाबू’ का मंचन किया जाएगा। वसंत काशीकर द्वारा निर्देशित इन नाटकों के मंचन जबलपुर के अलावा देश के प्रमुख शहरों में हुए हैं और इनकी ख्याति के कारण ही इन्हें काला घोड़ा फेस्टीवल में आमंत्रित किया गया है। ये दोनों विवेचना के मौलिक नाटक हैं। दस दिन का अनशन परसाई जी की इसी नाम की कहानी का नाट्य रूपांतर है जबकि मानबोध बाबू चन्द्रकिशोर जायसवाल की कहानी पर आधारित है। दस दिन का अनशन अनशन की राजनीति पर गहरा कटाक्ष है और मानबोधबाबू जीवन जीने की कला का दर्शन है।
विवेचना के कला निर्देशक वसंत काशीकर, के निर्देशन में संजय गर्ग, सीताराम सोनी, इंदु सूर्यवंशी, ब्रजेन्द्र, आयुश राय,अक्षय ठाकुर, अंशुल साहू, संजीव विश्वकर्मा, अली, शिवेन्द्र, आयुश राठौर, असीम और विवेचना के कलाकार इस समय सघन रिहर्सल में व्यस्त है। विवेचना के सचिव हिमांशु राय व बांकेबिहारी ब्यौहार ने बताया है कि विवेचना को देश की प्रमुख नाट्य संस्थाओं में शुमार किया जाना एक बड़ी उपलब्धि है। काला घोड़ा फेस्टीवल में विवेचना के मंचनों से जबलपुर का नाम ऊंचा होगा।
Friday, October 24, 2014
Thursday, October 23, 2014
विवेचना का बीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह: ऐतिहासिक सफल आयोजन
अजब नाटकों का गजब समारोह
विवेचना का बीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह ’बड़ी बुआ जी’ के भव्य मंचन के साथ 23 अक्टूबर 2013 को शुरू हुआ। समारोह के पहले दिन आयोजक संस्था विवेचना की इस प्रस्तुति ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। हंसते हंसाते में यह नाटक कलाकारों और दर्शकों को एक संदेश दे गया। यह नाटक महान नाटककार बादल सरकार का लिखा हुआ है जो 1977 से मंचित हो रहा है। विवेचना के निर्देशक वसंत काशीकर ने इस नाटक में 20-22 कलाकारों के साथ अनथक मेहनत कर नाटक को उंचाई पर पंहुचाया।
विवेचना के नाट्य समारोह में हर दिन प्रेक्षागृह के बाहर बने प्लेटफॉर्म पर शाम सात बजे से जबलपुर के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह कार्यक्रम एक वातावरण का निर्माण करता है। दर्शकों को प्रेक्षागृह के अंदर होने वाली कलागतिविधि के लिए मानसिक तौर पर तैयार करता है। प्लेटफार्म प्रदर्शन जबलपुर के ही कलाकार करते हैं अतः दर्शकों और कलाकारों का एक भावनात्मक जुड़ाव भी रहता है। इसीलिए प्लेटफॉर्म प्रदर्शन बहुत सफल प्रयोग है। प्रथम दिन प्लेटफार्म प्रदर्शन में शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई। दूसरे दिन नृत्यांजलि ग्रुप के ही सदस्यों ने दर्शकों को आनंदित किया। तीसरे दिन जॉय स्कूल के बच्चों ने अपना गायन वादन प्रस्तुत किया। चौथे दिन बाल भवन की नृत्यांगनाओं ने कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया। पांचवे और अंतिम दिन मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपनी भावभीनी प्रस्तुति दी। प्रतिदिन सैकड़ों दर्शकों ने प्लेटफॉर्म प्रदर्शनों को देखा और सराहा।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह हेतु भव्य तरंग प्रेक्षागृह को सुरूचिपूर्ण तरीके से सजाया गया था। रंगीन कपड़ों और विशालकाय बोर्ड के माध्यम से तरंग प्रेक्षागृह दूर से ही मानो दर्शकों को निमंत्रण दे रहा था। तरंग प्रेक्षागृह का भवन वास्तुकला का शानदार नमूना है। 760 दर्शकों की क्षमता वाले इस प्रेक्षागृह में नाटक देखने का वास्तविक आनंद आता है। विवेचना के आयोजन की सफलता यह है कि शहर के केन्द्र से अपेक्षाकृत दूर होने के बावजूद हॉल प्रतिदिन पूर भरता है और दर्शक सही समय पर आकर प्रवेश पत्र खरीदकर नाटक देखते हैं।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का उद्घाटन जबलपुर के वरिष्ठ चित्रकार, शिक्षक और छायाकार श्री कामता सागर ने दीप जलाकर किया। इस अवसर पर एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि के सीएमडी श्री मनुश्रीवास्तव, ई डी जनरेशन कं के सीएमडी श्री सुखबीर सिंह, ई डी श्री दीपक गुप्ता, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि के सचिव शैलेन्द्र महाजन व विवेचना के हिमाँशु राय, बाके बिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि उपस्थित थे। इस अवसर पर श्री कामता सागर का शॉल श्रीफल से अभिनंदन किया गया। श्री कामता सागर ने इस अवसर पर कहा कला का काम एक तपस्या है जिसमें बांसुरी नहीं बजती आदमी बजता है। यह हमारे शहर के लिए गौरव की बात है कि विवेचना ने एक राष्ट्रीय आयोजन के बीस वर्ष पूरे किए हैं और शहर के दर्शकों को देश के प्रख्यात नाट्य निर्देशकों के 100 से अधिक श्रेष्ठ नाटक दिखाए हैं। हमारे शहर में नाटकों का बहुत अच्छा माहौल बना है।
उद्घाटन के पश्चात विवेचना के कलाकारों ने ’बड़ी बुआजी’ नाटक का मंचन किया। एक अपार्टमेंट के विभिन्न फ्लेटों में रहने वाले लोग एक नाटक के मंचन की तैयारी कर रहे हैं। नाटक की मुख्य पात्र अनु के घर में रिहर्सल चल रही है। ठीक इसी समय अनु की बड़ी बुआ जी आ टपकतीं हैं जिन्हें नाटक से घृणा है। सभी लोग बुआ जी से यह बात छुपाते हैं कि वे नाटक कर रहे हैं। पर बार बार एक न एक पात्र आकर कुछ ऐसी बातें कर देता है कि बुआ जी को सब कुछ पता चल जाता है। वे अनु को अपने साथ लेकर दूसरे शहर चली जाती हैं। नाटक के लिए केवल एक दिन बचा है। तब शंभू अपनी तिकड़मों और चालों से स्थिति को संवारता है। अंततः शंभू और उसकी भाभी के हुनर से बड़ी बुआजी का मन बदल जाता है। वो नाटक की तारीफ करती हैं और शंभू और अनु की शादी करवा देती हैं।
अनु के पात्र में इंदु सूर्यवंशी और बड़ी बुआजी बनी शोभा उरखुड़े ने अपने अभिनय से अलग छाप छोड़ी। शंभू के रूप में आशीष नेमा, निताई के रूप में तपन बैनर्जी और अनु के पिता के रूप में सीताराम सोनी, फूफा के रोल में संजीव विश्वकर्मा ने बहुत प्रभावित किया। राजीव बने अभिनव काशीकर, भोला बने अंशुल साहू, अनाथ बने अक्षय ठाकुर, शशांक के रूप में बृजेन्द्र राजपूत, जगन बने आयुष राय, नौकर और हेमंत की भूमिकाओं में आयुष राठौर, और शंभू की भाभी के रोल में अर्चना सोनी ने सुंदर अभिनय किया। मि सेन और मिसेज सेन के रोल में संजय गर्ग और अमृत प्रभाकर ने बहुत आनंदित किया।
नाटक में प्रकाश परिकल्पना कमल जैन ने की थी जिसके लिए वे विशेष रूप से भोपाल से आए। प्रकाश के अद्भुत संयोजन से नाटक बहुत प्रभावशाली बना। सैट नाटक के उपयुक्त था जिसे सुरेश विश्वकर्मा और अभय पाटकर व हेमंत राठौर ने बनाया। नाटक के अंत में निर्देशक वसंत काशीकर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के दूसरे दिन अभिनव रंगमंडल उज्जैन के कलाकारों ने ’अरे शरीफ लोग’ का मंचन का दर्शकों की तारीफ बटोरी। जयंत दलवी के इस नाटक के मंचन कई दशकों से चल रहे हैं। नाटक ने जहां दर्शकों को ठहाके लगाकर हंसने के खूब मौके दिये वहीं अधेड़ उम्र के पुरूषों की तांक झांक की आदत की ओर हंसते हंसते ध्यान आकर्षित किया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
अरे शरीफ लोग एक शुद्ध हास्य नाटक है जो अधिक उम्र के लोगों की एक दमित इच्छा हास्य और व्यंग्य के जरिए उद्घाटित करता है। नाटक में चार परिवारों की कथा है जो एक दूसरे के पड़ोसी हैं। इसे व्यक्त करने के लिए निर्देशक शरद शर्मा ने बहुत माकूल सैट बनाया है। ये परिवार अपनी नोंकझोंक और लड़ाईयों के साथ रहे आ रहे हैं तभी एक खूबसूरत लड़की उनके बीच रहने के लिए आ जाती है। चारों परिवारों में एक एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति है। कोई शिक्षक है तो कोई डाक्टर। लड़की के आते ही सब के सब लड़की को चोरी छुपे घूरने में लग जाते हैं। इनकी पत्नियां होशियार हैं और लगातार इनकी हरकतों को पकड़ती जाती हैं। वहीं रहने वाला एक युवक ये सब देखता रहता है और एक चाल चलता है जिससे बार बार हास्य की स्थितियां निर्मित होती हैं। चाल से सबके सब बेपर्दा हो जाते हैं और नाटक का अंत एक नैतिक शिक्षा के साथ होता है।
डॉक्टर के रूप में मिलिन्द करकरे, स्कूल मास्टर के रूप में दीपक भावसार और युवा के रूप में यश राय ने दर्शकों को अपने चुलबुले अभिनय से खूब हंसाया। अनोखेलाल के पत्नी के रोल में संध्या कैथवास बहुत प्रभावित किया। पति के उपर हावी रहने वाली पत्नी के किरदार को उन्होंने अच्छी तरह निभाया। पूरे नाटक ने दर्शकों को बंाधे रखा। नाटक मानो हास्यास्पद घटनाओं का पूरा एक सिलसिला है जिसमें दर्शक पूरे समय हंसता रहता है।
नाटक के अंत में निर्देशक शरद शर्मा को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरे दिन मुखातिब थियेटर ग्रुप के कलाकारों ने ’द शैडो ऑफ ऑथेलो का मंचन किया गया। इस नाटक का लेखन व निर्देशन इश्तियाक आरिफ खान ने किया है। इश्तियाक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं और इन दिनों मुम्बई में सीरियल और फिल्मों में लगातार अभिनय कर रहे हैं। इस नाटक के कथानक और उसकी निराले अंदाज में की गई प्रस्तुति ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया।
निर्देशक ने बताया कि वे शेक्सपियर के नाटक ऑथेलो से बहुत प्रभावित हैं। हमारे समाज में और मानवजीवन में झूठ, ईर्ष्या, फरेब, षड़यंत्र इस तरह से शामिल हैं कि राजाओं व अमीरों से लेकर साधारण जन तक सभी इसके शिकार होते हैं और जब सचाई सामने आती है तब तक सब बर्बाद हो चुका होता है। वे चाहते थे कि इस नाटक को मंचित करें लेकिन भारतीय परिस्थितियों और पात्रों के साथ। इसी ने उन्हें ’द शैडो ऑफ ऑथेलो’ के लेखन की प्रेरणा दी। फिल्म ’ओंकारा’ देखकर एक गांव के लोग लौटते हैं तो प्रभावित होकर सोचते हैं कि अपने गांव में यही फिल्म बनाएंगे। गांव में फिल्म तो बन नहीं सकती इसीलिए तय होता है कि क्येांकि यह फिल्म किसी ओथेला नाम के नाटक पर आधारित है इसीलिए नाटक ही किया जाए। शहर में संघर्ष कर भाग आया एक असफल कलाकार दिल्ली से एक निर्देशक को नाटक के निर्देशन के लिए ले आता है। संघर्ष यह है कि गांव के लोग फिल्म से प्रभावित हैं और निर्देशक गंभीरता से उनसे नाटक करवाना चाहते हैं। नाटक की विशेषता यह है कि जब ऑथेलो नाटक की रिहर्सल चालू होती है तो नाटक के अंदर और बाहर ऑथेलो की घटनाएं घटने लगती है। असफल कलाकार जो निर्देशक को दिल्ली से लाया है वही उनके खिलाफ षडयंत्र करने लगता है। अंत में नाटक होता है और सारी गलतफ़हमियां दूर हो जाती हैं। इस नाटक में नाटक के अंदर नाटक का प्रयोग किया गया है।
असली नाटक में ऑथेलो को उसकी पत्नी डेस्डीमोना के खिलाफ इस तरह से गलतफहमियों में डाला जाता है कि वो अपनी वफादार पत्नी की हत्या कर देता है। लैगो नाम का पात्र कैसियो के कमरे में ऑथेलो की पत्नी का रूमाल रख देता है जिससे यह प्रभाणित हो कि कैसियो और डेस्डीमोना एकदूसरे से प्रेम करते हैं। यह घटना अलग तरीके से नाटक में भी घटित होती है।
नाटक में भोले बने बोलोराम दास, सेठ - नरेश मलिक, दबंग- अभिनय शर्मा, गंगाराम- आशीष शुक्ला बाबूलाल-प्रसून सिंह, मंगलू-अनिल मंहगू जाटव, सुलेमान- फैज मुहम्मद अंकुर देवरिया-इश्तियाक, नयनी देवी - साहिबा विज, रजिया - किरण दत्त खोजे, चंदन- विश्वनाथ चैटर्जी, अंकुर जी-धीरेन्द्र द्विवेदी ने बहुत प्रभावित किया। यह एक टीम वर्क था जिसमें सबने अपने अपने किरदारों के साथ न्याय किया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से बालभवन के कलाकारों ने संजय गर्ग के मार्गदर्शन में शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
नाटक के अंत में निर्देशक श्री इश्तियाक आरिफ खान को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के चौथे दिन सदा आर्ट्स सोसायटी दिल्ली के कलाकारों द्वारा ’कैद-ए-हयात’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक हिन्दी के वरिष्ठ नाटककार सुरेन्द्र वर्मा हैं। इस नाटक की में उर्दू भाषा के लालित्य का रसास्वादन होता है। नाटक का निर्देशन डा दानिश इकबाल ने किया है। दानिश राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से जॉय स्कूल के बच्चों द्वारा शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
विवेचना के नाट्य समारोह के चौैथे दिन प्रस्तुत नाटक ’कैद ए हयात’ भारत के महान शायर ग़ालिब के जीवन की पर्ताें को खोलता है। गालिब को लोग मोहब्बत की शायरी का उंचा फनकार मानते हैं मगर गालिब अपने जीवन में किस तरह की परेशानियों से जूझते रहे और इन्हीं सब के बीच उनने दुनिया को श्रेष्ठ रचनाएं दीं। गालिब का काल सन् 1857 के समय का है। वो अपने अंतिम दिनों में बहुत आर्थिक कष्ट में रहे। उनकी बीवी से उनकी बनती नहीं थी। वहीं उनके दीवान की नकल करने वाली कातिबा से उनका बहुत प्रेम था। गालिब को अपनी पेंशन के संबंध में कलकत्ता जाना पड़ा। जब वो लौटे तब तक कातिबा मृत्युशैया पर थी मगर एक सेठ ने उनपर अपनी वसूली के लिए मुकदमा दायर कर दिया था जिससे वो घर में नज़रबंद थे। गालिब ने बहुत कोशिश की कि कातिबा से मिल लें मगर तबतक कातिबा के मरने की खबर आ गई।
गालिब के किरदार को निर्देशक दानिश इकबाल ने खुद निभाया है। और दर्शकों को अपनी अभिनय क्षमता से अभिभूत कर दिया। उसी तरह क़ातिबा के किरदार में निधि मिश्रा ने अभिनय की उंचाईयों का छुआ। पूरे नाटक में सैट बहुत सुंदर था और गालिब के जमाने के रहनसहन को प्रकट करता था। नाटक में जो वेशभूषा इस्तेमाल की गई उससे नाटक बहुत सशक्त बना। सभी पुरूष और महिला पात्रों ने अपने चरित्र के अनुरूप वेशभूषा तो पहनी ही लेकिन उसकी खूबसूरती और बनावट देखते ही बनती थी। इसी तरह नाटक में प्रकाश परिकल्पना में जावेद ने कमाल किया। पूरा नाटक एक रंगीन सपने सा दिखता रहा हालांकि नाटक का मूड दु़ःखभरा था पर बीच बीच में नवोदित शायर परवेज ने आकर काफी हंसाया भी। नाटक में उस जमाने की उर्दू का इस्तेमाल बहुत सहज और सुंदर था। उर्दू भाषा के लालित्य से दर्शक दो चार हुए।
नाटक के अंत में निर्देशक डा दानिश इकबाल को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
अंतिम दिन ’अंक’ मुम्बई के कलाकारों द्वारा ’जात ही पूछो साधू की’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक मराठी के वरिष्ठ नाटककार स्व विजय तेंदुलकर हैं। यह उनका सर्वाधिक चर्चित नाटक है। सन् सत्तर के दशक से इस नाटक ने हिन्दी और मराठी नाट्य जगत में धूम मचा रखी है। इस नाटक का निर्देशन दिनेश ठाकुर ने किया है। स्व दिनेश ठाकुर विवेचना के 14 वें नाट्य समारोह में सन् 2007 में जबलपुर आए थे। विगत वर्ष उनका निधन हो गया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपने कथक व लोकनृत्यों के प्रदर्शन से दर्शकों का दिल जीत लिया। यह कार्यक्रम तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
‘जात ही पूछो साधु की’ विजय तेंदुलकर का सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है जो हंसते हंसाते भारतीय समाज के जातिवाद पर प्रहार करता है पर साथ ही आज के समाज के अंतर्विरोधों को भी उभारता है। विजय तेंदुलकर ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में जातिवाद को व्यंग्यात्मक आख्यान की तरह लिया है।
महीपत वाभ्ररूवाहन पिछड़ी जाति का एक बेरोजगार युवक है। जो किसी तरह थर्ड डिवीजन से हिंदी भाषा एवं साहित्य में एमए पास कर लेता है। हिंदी लेक्चरार के पद के लिए अनेक जगह आवेदन करने के बाद भी उसे इंटरव्यू का बुलावा इसलिए नहीं आता कि अपनी जाति में वह पहला एमए पास है। इसी बीच उसे अचानक एक ग्रामीण कॉलेज में नौकरी मिल जाती है क्योंकि उस पद के लिए वही अकेला उम्मीदवार था। कालेज के चेयरमैन की मूर्ख भांजी को भी कुछ दिन बाद हिंदी लेक्चरार के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है। महीपत के खिलाफ घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है। अपनी नौकरी बचाने के लिए महीपत चेयरमैन की भांजी नलिनी से इश्क लड़ाने और विवाह रचाने की योजना बनाता है। महीपत समझ जाता है जाति का क्या महत्व है और खास तौर पर उसकी निचली जाति के होने का। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए वो एक उलटे सीधे जुगाड़ बनाता है। अंततः महीपत का क्या होता है ? वह नौकरी से निकाल दिया जाता है और वह वापस अपनी पुरानी शिक्षित बेरोजगार की स्थिति मेंपंहुच जाता है। नाटक की खास बात यह है कि लेखक ने अपनी बात नाटक में हास्य के माध्यम से कहीं है जिससे नाटक बहुत रोचक बन गया है। दर्शक लगातार हंसते हुए नाटक देखते रहे।
मंच पर अमन गुप्ता, एस सी माख़ीजा, प्रीता माथुर, बिन्नी मरीवाला, रोहित चौधरी, प्रवाल मजूमदार, कुमकुम मजूमदार, प्रशांत, संदीप जय, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे, माधुरी अपने अभिनय का जादू बिखेर रहे थे जबकि मंच परे का काम नितिन शर्मा, सुनील देशमुख, रोहित, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे ने संभाला। नाटक के अंत में अंक की प्रभारी श्रीमती प्रीता माथुर ठाकुर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना का बीसवां समारोह बहुत सफल रहा। हर रोज लगभग एक हजार दर्शक आए। हर नाटक का पूरा रसास्वादन किया। सभी नाटक अलग अलग रंग के थे। इस बार दो नाट्य दल पहली बार जबलपुर आए जबकि दो नाट्य दल पहले भी जबलपुर आ चुके हैं। दर्शकों द्वारा विवेचना के राष्टीय नाट्य समारोह के लिए किया जाने वाला वर्ष भर का इंतजार सफल रहा। विवेचना के हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि ने सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त किया।
विवेचना का बीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह ’बड़ी बुआ जी’ के भव्य मंचन के साथ 23 अक्टूबर 2013 को शुरू हुआ। समारोह के पहले दिन आयोजक संस्था विवेचना की इस प्रस्तुति ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। हंसते हंसाते में यह नाटक कलाकारों और दर्शकों को एक संदेश दे गया। यह नाटक महान नाटककार बादल सरकार का लिखा हुआ है जो 1977 से मंचित हो रहा है। विवेचना के निर्देशक वसंत काशीकर ने इस नाटक में 20-22 कलाकारों के साथ अनथक मेहनत कर नाटक को उंचाई पर पंहुचाया।
विवेचना के नाट्य समारोह में हर दिन प्रेक्षागृह के बाहर बने प्लेटफॉर्म पर शाम सात बजे से जबलपुर के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह कार्यक्रम एक वातावरण का निर्माण करता है। दर्शकों को प्रेक्षागृह के अंदर होने वाली कलागतिविधि के लिए मानसिक तौर पर तैयार करता है। प्लेटफार्म प्रदर्शन जबलपुर के ही कलाकार करते हैं अतः दर्शकों और कलाकारों का एक भावनात्मक जुड़ाव भी रहता है। इसीलिए प्लेटफॉर्म प्रदर्शन बहुत सफल प्रयोग है। प्रथम दिन प्लेटफार्म प्रदर्शन में शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई। दूसरे दिन नृत्यांजलि ग्रुप के ही सदस्यों ने दर्शकों को आनंदित किया। तीसरे दिन जॉय स्कूल के बच्चों ने अपना गायन वादन प्रस्तुत किया। चौथे दिन बाल भवन की नृत्यांगनाओं ने कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया। पांचवे और अंतिम दिन मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपनी भावभीनी प्रस्तुति दी। प्रतिदिन सैकड़ों दर्शकों ने प्लेटफॉर्म प्रदर्शनों को देखा और सराहा।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह हेतु भव्य तरंग प्रेक्षागृह को सुरूचिपूर्ण तरीके से सजाया गया था। रंगीन कपड़ों और विशालकाय बोर्ड के माध्यम से तरंग प्रेक्षागृह दूर से ही मानो दर्शकों को निमंत्रण दे रहा था। तरंग प्रेक्षागृह का भवन वास्तुकला का शानदार नमूना है। 760 दर्शकों की क्षमता वाले इस प्रेक्षागृह में नाटक देखने का वास्तविक आनंद आता है। विवेचना के आयोजन की सफलता यह है कि शहर के केन्द्र से अपेक्षाकृत दूर होने के बावजूद हॉल प्रतिदिन पूर भरता है और दर्शक सही समय पर आकर प्रवेश पत्र खरीदकर नाटक देखते हैं।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का उद्घाटन जबलपुर के वरिष्ठ चित्रकार, शिक्षक और छायाकार श्री कामता सागर ने दीप जलाकर किया। इस अवसर पर एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि के सीएमडी श्री मनुश्रीवास्तव, ई डी जनरेशन कं के सीएमडी श्री सुखबीर सिंह, ई डी श्री दीपक गुप्ता, केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि के सचिव शैलेन्द्र महाजन व विवेचना के हिमाँशु राय, बाके बिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि उपस्थित थे। इस अवसर पर श्री कामता सागर का शॉल श्रीफल से अभिनंदन किया गया। श्री कामता सागर ने इस अवसर पर कहा कला का काम एक तपस्या है जिसमें बांसुरी नहीं बजती आदमी बजता है। यह हमारे शहर के लिए गौरव की बात है कि विवेचना ने एक राष्ट्रीय आयोजन के बीस वर्ष पूरे किए हैं और शहर के दर्शकों को देश के प्रख्यात नाट्य निर्देशकों के 100 से अधिक श्रेष्ठ नाटक दिखाए हैं। हमारे शहर में नाटकों का बहुत अच्छा माहौल बना है।
उद्घाटन के पश्चात विवेचना के कलाकारों ने ’बड़ी बुआजी’ नाटक का मंचन किया। एक अपार्टमेंट के विभिन्न फ्लेटों में रहने वाले लोग एक नाटक के मंचन की तैयारी कर रहे हैं। नाटक की मुख्य पात्र अनु के घर में रिहर्सल चल रही है। ठीक इसी समय अनु की बड़ी बुआ जी आ टपकतीं हैं जिन्हें नाटक से घृणा है। सभी लोग बुआ जी से यह बात छुपाते हैं कि वे नाटक कर रहे हैं। पर बार बार एक न एक पात्र आकर कुछ ऐसी बातें कर देता है कि बुआ जी को सब कुछ पता चल जाता है। वे अनु को अपने साथ लेकर दूसरे शहर चली जाती हैं। नाटक के लिए केवल एक दिन बचा है। तब शंभू अपनी तिकड़मों और चालों से स्थिति को संवारता है। अंततः शंभू और उसकी भाभी के हुनर से बड़ी बुआजी का मन बदल जाता है। वो नाटक की तारीफ करती हैं और शंभू और अनु की शादी करवा देती हैं।
अनु के पात्र में इंदु सूर्यवंशी और बड़ी बुआजी बनी शोभा उरखुड़े ने अपने अभिनय से अलग छाप छोड़ी। शंभू के रूप में आशीष नेमा, निताई के रूप में तपन बैनर्जी और अनु के पिता के रूप में सीताराम सोनी, फूफा के रोल में संजीव विश्वकर्मा ने बहुत प्रभावित किया। राजीव बने अभिनव काशीकर, भोला बने अंशुल साहू, अनाथ बने अक्षय ठाकुर, शशांक के रूप में बृजेन्द्र राजपूत, जगन बने आयुष राय, नौकर और हेमंत की भूमिकाओं में आयुष राठौर, और शंभू की भाभी के रोल में अर्चना सोनी ने सुंदर अभिनय किया। मि सेन और मिसेज सेन के रोल में संजय गर्ग और अमृत प्रभाकर ने बहुत आनंदित किया।
नाटक में प्रकाश परिकल्पना कमल जैन ने की थी जिसके लिए वे विशेष रूप से भोपाल से आए। प्रकाश के अद्भुत संयोजन से नाटक बहुत प्रभावशाली बना। सैट नाटक के उपयुक्त था जिसे सुरेश विश्वकर्मा और अभय पाटकर व हेमंत राठौर ने बनाया। नाटक के अंत में निर्देशक वसंत काशीकर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के दूसरे दिन अभिनव रंगमंडल उज्जैन के कलाकारों ने ’अरे शरीफ लोग’ का मंचन का दर्शकों की तारीफ बटोरी। जयंत दलवी के इस नाटक के मंचन कई दशकों से चल रहे हैं। नाटक ने जहां दर्शकों को ठहाके लगाकर हंसने के खूब मौके दिये वहीं अधेड़ उम्र के पुरूषों की तांक झांक की आदत की ओर हंसते हंसते ध्यान आकर्षित किया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
अरे शरीफ लोग एक शुद्ध हास्य नाटक है जो अधिक उम्र के लोगों की एक दमित इच्छा हास्य और व्यंग्य के जरिए उद्घाटित करता है। नाटक में चार परिवारों की कथा है जो एक दूसरे के पड़ोसी हैं। इसे व्यक्त करने के लिए निर्देशक शरद शर्मा ने बहुत माकूल सैट बनाया है। ये परिवार अपनी नोंकझोंक और लड़ाईयों के साथ रहे आ रहे हैं तभी एक खूबसूरत लड़की उनके बीच रहने के लिए आ जाती है। चारों परिवारों में एक एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति है। कोई शिक्षक है तो कोई डाक्टर। लड़की के आते ही सब के सब लड़की को चोरी छुपे घूरने में लग जाते हैं। इनकी पत्नियां होशियार हैं और लगातार इनकी हरकतों को पकड़ती जाती हैं। वहीं रहने वाला एक युवक ये सब देखता रहता है और एक चाल चलता है जिससे बार बार हास्य की स्थितियां निर्मित होती हैं। चाल से सबके सब बेपर्दा हो जाते हैं और नाटक का अंत एक नैतिक शिक्षा के साथ होता है।
डॉक्टर के रूप में मिलिन्द करकरे, स्कूल मास्टर के रूप में दीपक भावसार और युवा के रूप में यश राय ने दर्शकों को अपने चुलबुले अभिनय से खूब हंसाया। अनोखेलाल के पत्नी के रोल में संध्या कैथवास बहुत प्रभावित किया। पति के उपर हावी रहने वाली पत्नी के किरदार को उन्होंने अच्छी तरह निभाया। पूरे नाटक ने दर्शकों को बंाधे रखा। नाटक मानो हास्यास्पद घटनाओं का पूरा एक सिलसिला है जिसमें दर्शक पूरे समय हंसता रहता है।
नाटक के अंत में निर्देशक शरद शर्मा को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरे दिन मुखातिब थियेटर ग्रुप के कलाकारों ने ’द शैडो ऑफ ऑथेलो का मंचन किया गया। इस नाटक का लेखन व निर्देशन इश्तियाक आरिफ खान ने किया है। इश्तियाक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं और इन दिनों मुम्बई में सीरियल और फिल्मों में लगातार अभिनय कर रहे हैं। इस नाटक के कथानक और उसकी निराले अंदाज में की गई प्रस्तुति ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया।
निर्देशक ने बताया कि वे शेक्सपियर के नाटक ऑथेलो से बहुत प्रभावित हैं। हमारे समाज में और मानवजीवन में झूठ, ईर्ष्या, फरेब, षड़यंत्र इस तरह से शामिल हैं कि राजाओं व अमीरों से लेकर साधारण जन तक सभी इसके शिकार होते हैं और जब सचाई सामने आती है तब तक सब बर्बाद हो चुका होता है। वे चाहते थे कि इस नाटक को मंचित करें लेकिन भारतीय परिस्थितियों और पात्रों के साथ। इसी ने उन्हें ’द शैडो ऑफ ऑथेलो’ के लेखन की प्रेरणा दी। फिल्म ’ओंकारा’ देखकर एक गांव के लोग लौटते हैं तो प्रभावित होकर सोचते हैं कि अपने गांव में यही फिल्म बनाएंगे। गांव में फिल्म तो बन नहीं सकती इसीलिए तय होता है कि क्येांकि यह फिल्म किसी ओथेला नाम के नाटक पर आधारित है इसीलिए नाटक ही किया जाए। शहर में संघर्ष कर भाग आया एक असफल कलाकार दिल्ली से एक निर्देशक को नाटक के निर्देशन के लिए ले आता है। संघर्ष यह है कि गांव के लोग फिल्म से प्रभावित हैं और निर्देशक गंभीरता से उनसे नाटक करवाना चाहते हैं। नाटक की विशेषता यह है कि जब ऑथेलो नाटक की रिहर्सल चालू होती है तो नाटक के अंदर और बाहर ऑथेलो की घटनाएं घटने लगती है। असफल कलाकार जो निर्देशक को दिल्ली से लाया है वही उनके खिलाफ षडयंत्र करने लगता है। अंत में नाटक होता है और सारी गलतफ़हमियां दूर हो जाती हैं। इस नाटक में नाटक के अंदर नाटक का प्रयोग किया गया है।
असली नाटक में ऑथेलो को उसकी पत्नी डेस्डीमोना के खिलाफ इस तरह से गलतफहमियों में डाला जाता है कि वो अपनी वफादार पत्नी की हत्या कर देता है। लैगो नाम का पात्र कैसियो के कमरे में ऑथेलो की पत्नी का रूमाल रख देता है जिससे यह प्रभाणित हो कि कैसियो और डेस्डीमोना एकदूसरे से प्रेम करते हैं। यह घटना अलग तरीके से नाटक में भी घटित होती है।
नाटक में भोले बने बोलोराम दास, सेठ - नरेश मलिक, दबंग- अभिनय शर्मा, गंगाराम- आशीष शुक्ला बाबूलाल-प्रसून सिंह, मंगलू-अनिल मंहगू जाटव, सुलेमान- फैज मुहम्मद अंकुर देवरिया-इश्तियाक, नयनी देवी - साहिबा विज, रजिया - किरण दत्त खोजे, चंदन- विश्वनाथ चैटर्जी, अंकुर जी-धीरेन्द्र द्विवेदी ने बहुत प्रभावित किया। यह एक टीम वर्क था जिसमें सबने अपने अपने किरदारों के साथ न्याय किया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से बालभवन के कलाकारों ने संजय गर्ग के मार्गदर्शन में शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
नाटक के अंत में निर्देशक श्री इश्तियाक आरिफ खान को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के चौथे दिन सदा आर्ट्स सोसायटी दिल्ली के कलाकारों द्वारा ’कैद-ए-हयात’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक हिन्दी के वरिष्ठ नाटककार सुरेन्द्र वर्मा हैं। इस नाटक की में उर्दू भाषा के लालित्य का रसास्वादन होता है। नाटक का निर्देशन डा दानिश इकबाल ने किया है। दानिश राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से जॉय स्कूल के बच्चों द्वारा शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
विवेचना के नाट्य समारोह के चौैथे दिन प्रस्तुत नाटक ’कैद ए हयात’ भारत के महान शायर ग़ालिब के जीवन की पर्ताें को खोलता है। गालिब को लोग मोहब्बत की शायरी का उंचा फनकार मानते हैं मगर गालिब अपने जीवन में किस तरह की परेशानियों से जूझते रहे और इन्हीं सब के बीच उनने दुनिया को श्रेष्ठ रचनाएं दीं। गालिब का काल सन् 1857 के समय का है। वो अपने अंतिम दिनों में बहुत आर्थिक कष्ट में रहे। उनकी बीवी से उनकी बनती नहीं थी। वहीं उनके दीवान की नकल करने वाली कातिबा से उनका बहुत प्रेम था। गालिब को अपनी पेंशन के संबंध में कलकत्ता जाना पड़ा। जब वो लौटे तब तक कातिबा मृत्युशैया पर थी मगर एक सेठ ने उनपर अपनी वसूली के लिए मुकदमा दायर कर दिया था जिससे वो घर में नज़रबंद थे। गालिब ने बहुत कोशिश की कि कातिबा से मिल लें मगर तबतक कातिबा के मरने की खबर आ गई।
गालिब के किरदार को निर्देशक दानिश इकबाल ने खुद निभाया है। और दर्शकों को अपनी अभिनय क्षमता से अभिभूत कर दिया। उसी तरह क़ातिबा के किरदार में निधि मिश्रा ने अभिनय की उंचाईयों का छुआ। पूरे नाटक में सैट बहुत सुंदर था और गालिब के जमाने के रहनसहन को प्रकट करता था। नाटक में जो वेशभूषा इस्तेमाल की गई उससे नाटक बहुत सशक्त बना। सभी पुरूष और महिला पात्रों ने अपने चरित्र के अनुरूप वेशभूषा तो पहनी ही लेकिन उसकी खूबसूरती और बनावट देखते ही बनती थी। इसी तरह नाटक में प्रकाश परिकल्पना में जावेद ने कमाल किया। पूरा नाटक एक रंगीन सपने सा दिखता रहा हालांकि नाटक का मूड दु़ःखभरा था पर बीच बीच में नवोदित शायर परवेज ने आकर काफी हंसाया भी। नाटक में उस जमाने की उर्दू का इस्तेमाल बहुत सहज और सुंदर था। उर्दू भाषा के लालित्य से दर्शक दो चार हुए।
नाटक के अंत में निर्देशक डा दानिश इकबाल को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
अंतिम दिन ’अंक’ मुम्बई के कलाकारों द्वारा ’जात ही पूछो साधू की’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक मराठी के वरिष्ठ नाटककार स्व विजय तेंदुलकर हैं। यह उनका सर्वाधिक चर्चित नाटक है। सन् सत्तर के दशक से इस नाटक ने हिन्दी और मराठी नाट्य जगत में धूम मचा रखी है। इस नाटक का निर्देशन दिनेश ठाकुर ने किया है। स्व दिनेश ठाकुर विवेचना के 14 वें नाट्य समारोह में सन् 2007 में जबलपुर आए थे। विगत वर्ष उनका निधन हो गया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपने कथक व लोकनृत्यों के प्रदर्शन से दर्शकों का दिल जीत लिया। यह कार्यक्रम तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
‘जात ही पूछो साधु की’ विजय तेंदुलकर का सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है जो हंसते हंसाते भारतीय समाज के जातिवाद पर प्रहार करता है पर साथ ही आज के समाज के अंतर्विरोधों को भी उभारता है। विजय तेंदुलकर ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में जातिवाद को व्यंग्यात्मक आख्यान की तरह लिया है।
महीपत वाभ्ररूवाहन पिछड़ी जाति का एक बेरोजगार युवक है। जो किसी तरह थर्ड डिवीजन से हिंदी भाषा एवं साहित्य में एमए पास कर लेता है। हिंदी लेक्चरार के पद के लिए अनेक जगह आवेदन करने के बाद भी उसे इंटरव्यू का बुलावा इसलिए नहीं आता कि अपनी जाति में वह पहला एमए पास है। इसी बीच उसे अचानक एक ग्रामीण कॉलेज में नौकरी मिल जाती है क्योंकि उस पद के लिए वही अकेला उम्मीदवार था। कालेज के चेयरमैन की मूर्ख भांजी को भी कुछ दिन बाद हिंदी लेक्चरार के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है। महीपत के खिलाफ घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है। अपनी नौकरी बचाने के लिए महीपत चेयरमैन की भांजी नलिनी से इश्क लड़ाने और विवाह रचाने की योजना बनाता है। महीपत समझ जाता है जाति का क्या महत्व है और खास तौर पर उसकी निचली जाति के होने का। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए वो एक उलटे सीधे जुगाड़ बनाता है। अंततः महीपत का क्या होता है ? वह नौकरी से निकाल दिया जाता है और वह वापस अपनी पुरानी शिक्षित बेरोजगार की स्थिति मेंपंहुच जाता है। नाटक की खास बात यह है कि लेखक ने अपनी बात नाटक में हास्य के माध्यम से कहीं है जिससे नाटक बहुत रोचक बन गया है। दर्शक लगातार हंसते हुए नाटक देखते रहे।
मंच पर अमन गुप्ता, एस सी माख़ीजा, प्रीता माथुर, बिन्नी मरीवाला, रोहित चौधरी, प्रवाल मजूमदार, कुमकुम मजूमदार, प्रशांत, संदीप जय, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे, माधुरी अपने अभिनय का जादू बिखेर रहे थे जबकि मंच परे का काम नितिन शर्मा, सुनील देशमुख, रोहित, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे ने संभाला। नाटक के अंत में अंक की प्रभारी श्रीमती प्रीता माथुर ठाकुर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना का बीसवां समारोह बहुत सफल रहा। हर रोज लगभग एक हजार दर्शक आए। हर नाटक का पूरा रसास्वादन किया। सभी नाटक अलग अलग रंग के थे। इस बार दो नाट्य दल पहली बार जबलपुर आए जबकि दो नाट्य दल पहले भी जबलपुर आ चुके हैं। दर्शकों द्वारा विवेचना के राष्टीय नाट्य समारोह के लिए किया जाने वाला वर्ष भर का इंतजार सफल रहा। विवेचना के हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि ने सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त किया।
Wednesday, October 22, 2014
हास्य व्यंग्य से भरपूर है विवेचना का 20 वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह
विवेचना का बीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह आगामी 23 अक्टूबर से 27 अक्टूबर 2013 तक तरंग प्रेक्षागृह, जबलपुर में आयोजित है। इस समारोह की खासियत यह है कि इस समारोह को खुशनुमा बनाने के लिए हास्य व्यंग्य से भरपूर नाटकों का चुनाव किया गया है। इस नाट्य समारोह की दूसरी खासियत यह है कि इसमें भारत के चार महान नाटककारों के नाटक मंचित होने जा रहे हैं। बादल सरकार, जयंत दलवी, सुरेन्द्र वर्मा और विजय तेंदुलकर जैसे महान नाटककारों के नाटकों से सजा यह नाट्य समारोह दर्शकों को बहुत पसंद आएगा।
पहले दिन 23 अक्टॅूबर को आयोजक संस्था विवेचना के नाटक ’बड़ी बुआजी’ का मंचन होगा। बादल सरकार का लिखा यह नाटक पिछले 30 सालों से दर्शकों को गुदगुदा रहा है। एक घर में नाटक की रिहर्सल चल रही है। घर मालिक की लड़की अनु उसकी मुख्य पात्र है। तभी उसकी बड़ी बुआ जी आ पंहुचती हैं जो नाटकों की घनघोर विरोधी हैं। अब पूरी टीम यह छुपाने में लग जाती है कि यहां नाटक नहीं हो रहा है। और घटनाएं कुछ ऐसी घटती हैं कि बुआजी को पता चलता जाता है।
समारोह का दूसरा नाटक जयंत दलवी का प्रसिद्ध नाटक ’अरे शरीफ लोग’ है। इस नाटक में हास्य के माध्यम से आम आदमी के मन की ग्रंथियों को उघाड़ा है। एक चाल में चार अधेड़ उम्र के पड़ोसी रहते हैं। वहीं एक लड़की नये किरायेदार के रूप में आ पहुँचती है। चारों पड़ोसियों और उनकी पत्नियों की नोंकझोंक के बीच एक युवक तरह तरह की चालें चलता है जिससे सबका चरित्र उजागर होता है।
तीसरे दिन मुखातिब, मुम्बई द्वारा इश्तियाक आरिफ खान के लेखन और निर्देशन मेें मुम्बई के कलाकारों द्वारा ’द शैडो ऑफ ऑथेलो’ का मंचन किया जाएगा। एक गांव के युवक ’ओंकारा’ फिल्म देखकर यह विचार करते हैं कि अपने गांव में यह फिल्म बनाई जाए। उन्हें बताया जाता है कि यह फिल्म शेक्सपियर के नाटक ओथेलो पर आधारित है। तब दिल्ली से निर्देशक बुलाकर गांव के लोग ऑथेलो नाटक करते हैं। इस नाटक की कहानी के अंदर से गांव के लोगों की कहानी बनने लगती है। गांव के युवाओं में सभी फिल्मी अभिनय करना चाहते हैं। निर्देशक उनसे गंभीरता से ऑथेलो नाटक कराना चाहता है। नाटक बहुत रोचक है।
चौथे दिन हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा का एक गंभीर उर्दू नाटक ’कैद-ए-हयात’ का मंचन दिल्ली से दानिश इकबाल की टीम करेगी। यह नाटक गालिब के जीवन के अंतिम दिनों की परेशानियों और क़ातिबा के प्रति उनके दुखांत प्रेम की गाथा है। यह नाटक श्रेष्ठ अभिनय, अद्भुत कथानक और उर्दू भाषा के लालित्य के लिए जाना जाता है।
पांचवें और अंतिम दिन विजय तेंदुलकर का प्रसिद्ध नाटक ’जात ही पूछो साधु की’ का मंचन स्व दिनेश ठाकुर के निर्देशन में ’अंक’ मुम्बई की टीम करेगी। पिछड़ी जाति के महीपत नाम के एक बेरोजगार युवक को बड़ी मेहनत के बाद गांव के एक कालेज में पढ़ाने की नौकरी इसलिए मिल जाती है कि उसके अलावा कोई उम्मीदवार ही नहीं था। अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए महीपत तरह तरह के जतन करना पड़ते हैं। हर जगह उसकी जाति उसके आड़े आती है। सारे लोग उसकी नौकरी के पीछे पड़ जाते हैं। कालेज के मालिक की लड़की भी कॉलेज में भरती हो जाती है और महीपत के पीछे पड़ जाती है। इस नाटक में मुम्बई के फिल्म टी वी जगत के जाने माने कलाकार शिरकत करेंगे। यह नाटक हिन्दी का बहुत पसंदीदा हास्य नाटक है।
विवेचना के कलाकार और कला निर्देशक जहां बड़ी बुआ जी के पूर्वाभ्यास में लगे हुए हैं वहीं विवेचना के पदाधिकारी नाट्य समारोह की तैयारियों में जुटे हुए हैं। पिछले बीस सालों में विवेचना के नाट्य समारोह में जो भी दल जबलपुर आए हैं वे बहुत मधुर यादों और स्नेहपूर्ण आतिथ्य के साथ वापस गये हैं। विवेचना के नाट्य समारोह की तैयारी बहुत शिद्दत से की जाती है और सभी व्यवस्थाओं और प्रचार प्रसार का पूरा ध्यान रखा जाता है।
पहले दिन 23 अक्टॅूबर को आयोजक संस्था विवेचना के नाटक ’बड़ी बुआजी’ का मंचन होगा। बादल सरकार का लिखा यह नाटक पिछले 30 सालों से दर्शकों को गुदगुदा रहा है। एक घर में नाटक की रिहर्सल चल रही है। घर मालिक की लड़की अनु उसकी मुख्य पात्र है। तभी उसकी बड़ी बुआ जी आ पंहुचती हैं जो नाटकों की घनघोर विरोधी हैं। अब पूरी टीम यह छुपाने में लग जाती है कि यहां नाटक नहीं हो रहा है। और घटनाएं कुछ ऐसी घटती हैं कि बुआजी को पता चलता जाता है।
समारोह का दूसरा नाटक जयंत दलवी का प्रसिद्ध नाटक ’अरे शरीफ लोग’ है। इस नाटक में हास्य के माध्यम से आम आदमी के मन की ग्रंथियों को उघाड़ा है। एक चाल में चार अधेड़ उम्र के पड़ोसी रहते हैं। वहीं एक लड़की नये किरायेदार के रूप में आ पहुँचती है। चारों पड़ोसियों और उनकी पत्नियों की नोंकझोंक के बीच एक युवक तरह तरह की चालें चलता है जिससे सबका चरित्र उजागर होता है।
तीसरे दिन मुखातिब, मुम्बई द्वारा इश्तियाक आरिफ खान के लेखन और निर्देशन मेें मुम्बई के कलाकारों द्वारा ’द शैडो ऑफ ऑथेलो’ का मंचन किया जाएगा। एक गांव के युवक ’ओंकारा’ फिल्म देखकर यह विचार करते हैं कि अपने गांव में यह फिल्म बनाई जाए। उन्हें बताया जाता है कि यह फिल्म शेक्सपियर के नाटक ओथेलो पर आधारित है। तब दिल्ली से निर्देशक बुलाकर गांव के लोग ऑथेलो नाटक करते हैं। इस नाटक की कहानी के अंदर से गांव के लोगों की कहानी बनने लगती है। गांव के युवाओं में सभी फिल्मी अभिनय करना चाहते हैं। निर्देशक उनसे गंभीरता से ऑथेलो नाटक कराना चाहता है। नाटक बहुत रोचक है।
चौथे दिन हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार सुरेन्द्र वर्मा का एक गंभीर उर्दू नाटक ’कैद-ए-हयात’ का मंचन दिल्ली से दानिश इकबाल की टीम करेगी। यह नाटक गालिब के जीवन के अंतिम दिनों की परेशानियों और क़ातिबा के प्रति उनके दुखांत प्रेम की गाथा है। यह नाटक श्रेष्ठ अभिनय, अद्भुत कथानक और उर्दू भाषा के लालित्य के लिए जाना जाता है।
पांचवें और अंतिम दिन विजय तेंदुलकर का प्रसिद्ध नाटक ’जात ही पूछो साधु की’ का मंचन स्व दिनेश ठाकुर के निर्देशन में ’अंक’ मुम्बई की टीम करेगी। पिछड़ी जाति के महीपत नाम के एक बेरोजगार युवक को बड़ी मेहनत के बाद गांव के एक कालेज में पढ़ाने की नौकरी इसलिए मिल जाती है कि उसके अलावा कोई उम्मीदवार ही नहीं था। अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए महीपत तरह तरह के जतन करना पड़ते हैं। हर जगह उसकी जाति उसके आड़े आती है। सारे लोग उसकी नौकरी के पीछे पड़ जाते हैं। कालेज के मालिक की लड़की भी कॉलेज में भरती हो जाती है और महीपत के पीछे पड़ जाती है। इस नाटक में मुम्बई के फिल्म टी वी जगत के जाने माने कलाकार शिरकत करेंगे। यह नाटक हिन्दी का बहुत पसंदीदा हास्य नाटक है।
विवेचना के कलाकार और कला निर्देशक जहां बड़ी बुआ जी के पूर्वाभ्यास में लगे हुए हैं वहीं विवेचना के पदाधिकारी नाट्य समारोह की तैयारियों में जुटे हुए हैं। पिछले बीस सालों में विवेचना के नाट्य समारोह में जो भी दल जबलपुर आए हैं वे बहुत मधुर यादों और स्नेहपूर्ण आतिथ्य के साथ वापस गये हैं। विवेचना के नाट्य समारोह की तैयारी बहुत शिद्दत से की जाती है और सभी व्यवस्थाओं और प्रचार प्रसार का पूरा ध्यान रखा जाता है।
विवेचना द्वारा ’मिला तेज से तेज’ का मंचन
विवेचना संस्था द्वारा नाटकों के निरंतर मंचन के अंतर्गत 2 सितंबर 2013 सोमवार को संध्या 7.30 बजे नाटक मिला तेज से तेज का मंचन गया। नाटक का निर्देशन व आलेख संजय गर्ग का था। इसमें किशोर वय के कलाकारों ने सराहनीय कार्य किया। मंच पर पूरे समय उर्जा का संचार होता दिख रहा था।
यह नाटक सुभद्राकुमारी चौहान के जीवन पर आधारित है। सुभद्रा जी न केवल एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थीं वरन् इस शताब्दी की महत्वपूर्ण कवियत्री थीं। इससे कवि विरल हैं जिनकी कविताएं हर एक की जबान पर होती हों। हर हिंदी भाषी के लिए ’खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी’ बचपन मंे कविता शब्द से परिचय कराने वाली पहली पंक्ति हुआ करती है।
संजय गर्ग ने सुभद्रा जी के बचपन, फिर विवाह और विवाह के बाद बच्चों के लालन पालन के बीच विकसित होती हुई एक कवियत्री को अपनी प्रस्तुति में आकार दिया है। नाटक में बचपन के दृश्य बहुत भावनात्मक हैं। आज के यांत्रिक समय में ये दृश्य एक अलग ही प्रभाव पैदा करते हैं जिसमें भावनाओं और सादगी का अद्भुद सम्मिश्रण दिखता है। स्कूल के बच्चे इकठ्ठे होकर अपनी पाठ्यपुस्तक के गीत गाते हैं जो सभी सुभद्रा जी द्वारा लिखे गये हैं। नाटक में ’ कोयल काली काली है पर मीठी है इसकी बोली’, वो देखो मां आज खिलौने वाला फिर से आया है’, आओ प्रिय ऋतुराज मगर धीरे से आना, मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी, सभा सभा का खेल आज हम खेलेंगे दीदी आओ, ये कदम्ब का पेड़ अगर मां होता जमुना तीरे, नीम का पेड़ यद्यपि तू कड़ू , नहीं रंचमात्र मिठास, आदि कविताओं का सस्वर गायन बहुत रोचक है। इससे यह नाटक कहीं संगीत नाटक के पास जा बैठता है।
नाटक में जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम विशेष रूप से झंडा सत्याग्रह और सुभद्रा जी व उनके पति का बच्ची सहित जेल जाने के दृश्य हैं। उल्लेखनीय है कि सुभद्रा जी को पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी कहा जाता है। वे केन्ट बोर्ड जबलपुर में झंडा फहराते गिरफ्तार हुर्इ्रं थीं। नाटक में गांधी जी के जबलपुर प्रवास का भी दृश्य है जो अनोखा है और बहुत प्रभावशाली है। गांधी जी 3 दिसंबर 1933 को अछूतोद्धार आंदोलन के सिलसिले में जबलपुर आए थे।
सुभद्रा कुमारी चौहान का गीत ’बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी। दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। जैसी पंक्तियां हमेशा हमारे कानों में गंूजती रहती है। पाठ्यपुस्तकों में जो गीत है वो संपादित है जबकि दरअसल यह गीत बहुत बड़ा है। इतिहास को इतने सरल शब्दों में पिरोया गया है कि बचपन में पढ़ा यह गीत आज भी कंठस्थ है। जिन लोगों ने सुभद्रा जी को केवल इस गीत के माध्यम से जाना है उनके लिए सुभद्रा जी का संघर्षपूर्ण जीवन और साहित्यिक जीवन दोनों ही बहुत कुछ समझने की मांग करते हैं। ये गांधी का आंदोलन ही था जिसने लाखों महिलाओं को आजादी के आंदोलन में समेटा और उन्हें घर से बाहर निकालकर देश के लिए मरमिटने का संदेश दिया।
नाटक में सुभद्रा जी के पति लक्ष्मण सिंह चौहान का जब्तशुदा नाटक ’गुलामी का नशा’ से भी एक कविता ’चल दिये माता के बंदे जेल बंदे मातरम’ का गायन भी किया गया है।
नाटक में विभिन्न भूमिकाओं में आशीष नेमा, अली फैजल खां, अंशुल साहू, शेखर मेहरा, अक्षय ठाकुर, आयुष राय, संजीव विश्वकर्मा, ब्रजेन्द्र राजपूत, शिवेन्द्र सिंह, इंदु सूर्यवंशी, मुस्कान सोनी, शालिनी अहिरवार, श्रुति गुप्ता, श्रेया गुप्ता, सुजाता केसरवानी, मनीषा तिवारी, मनु कौशल ने अभिनय किया। तबले पर अक्षय ठाकुर, ढोलक पर अंकुश पसेरिया, हारमोनियम पर मुस्कान सोनी, रिज़वान अली खां रहे। इंदु सूर्यवंशी ने सुभद्रा जी के रोल में प्रभावशाली अभिनय किया। प्रकाश व्यवस्था जगदीश यादव की थी। नाटक के अंत में संजय गर्ग ने दर्शकों का आभार व्यक्त करते हुए जॉय स्कूल का आभार व्यक्त किया जहां इस नाटक का पूर्वाभ्यास हुआ।
Tuesday, October 21, 2014
बहुत कठिन है व्यंग्य लिखना: डा ज्ञान चतुर्वेदी
विवेचना का आयोजन - परसाई जन्मदिवस
व्यंग्य पढ़ने और लिखने की तमीज़़
विवेचना, जबलपुर द्वारा हर साल की तरह इस साल भी 22 अगस्त को परसाई जन्मदिवस मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डा ज्ञान चतुर्वेदी थे। नईदुनिया के जबलपुर संस्करण के संपादक श्री दिवाकर ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
कार्यक्रम के प्रारंभ में विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने परसाई जन्मदिवस के बारे में कहा कि विवेचना द्वारा हर 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिवस मनाया जाता है। लेखक जिस शहर में रहा हो वहां उसके मित्रों और पाठकों का उसे याद किया जाना जरूरी है।
लेखिका इंदु श्रीवास्तव ने परसाई जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक लेख पढ़ा। इंदु जी ने बताया कि परसाई जी सिर्फ लेखक नहीं थे वरन् एक तरह के समाज सुधारक थे जो अपनी तीखी लेखनी से समाज को बदलने की कोशिश करते थे। वे अपने लेखन के लिए चरित्र आम लोगों में से तलाशते थे और उसी के बहाने वो अपनी बात कह जाते थे। उनकी कही बातें तीर की तरह चुभती थीं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ झेला था। उनके ये जीवनानुभव ही उन्हें हर चरित्र के अंदर झांक सकने की शक्ति देते थे।
डा ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने भाषण की शुरूआत में कहा कि मुझे मुख्यअतिथि बनने से बहुत डर लगता है। क्योंकि धीरे धीरे मुख्यअतिथि बनने की आदत सी बन जाती है फिर ये लगने लगता है कि भई सबको बुला रहे हो, हमंे भी बुलाओ। कर कमल हो जाते हैं। एक लेखक की सबसे बड़ी विडंबना यही हो सकती है कि उसके कर कमल हो जाएं। जो हाथ उसकी पूंजी हैं वे ही किसी काम के न रहें।
आगे बात करते हुए डा ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि आज मेरा विषय ’व्यंग्य पढ़ने की तमीज़’ है। इससे मेरा तात्पर्य तमीज़ सिखाना नहीं है वरन् मेरा कहना ये है कि यदि मैं कोई बात कहना चाहता हूं और वो मैं अपने शब्दों के माध्यम से कह सका हूं तो मैं सफल हूं। दरअसल ये शीर्षक होना चाहिए ’व्यंग्य पढ़ने और लिखने की तमीज़’। पढ़ने की तमीज़ तो होना ही चाहिए पर साथ ही व्यंग्य लिखने की तमीज़’ भी होना चाहिए।
डा ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि एक अच्छी व्यंग्य रचना किसे कहते हैं ? क्या है जिसके कारण हमें एक रचना अच्छी लगती है। एक पाठक हमारी रचना में अंततः क्या ढंूढता है। पाठक हमारी रचना में विचार तलाशता है। यदि आप व्यंग्यकार हैं तो आपकी रचना में व्यंग्य तो हो। व्यंग्य तो विचार से ही पैदा होता है। यदि आपके पास विचार ही नहीं है तो व्यंग्य कहां से पैदा होगा। इसीलिए जरूरी है कि हम समाज को समझें, समाज में रह रहे लोगों के दुख दर्द को जानें फिर डूब कर लिखें। जिस विचार ने तुम्हें नहीं पकड़ा वो दर्शक या पाठक को क्या पकड़ेगा।
एक अच्छी रचना की पहचान करने के लिए शास्त्र पढ़ना जरूरी नहीं है। व्यंग्य लिखना बहुत कठिन काम है। इसीलिए आप पायेंगे कि हिन्दी, उर्दू में व्यंग्यकार कितने हैं ? उन्होंने पाकिस्तान का जिक्र किया जहां शौकत थानवी की मृत्यु पर राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। उन्होंने ब्रिटेन के हवाई अड्डे का भी उल्लेख किया जहां वे एक सम्मान लेने गये थे और हवाई अड्डे पर उन्हें रोक लिया गया और जब उन्होंने बताया कि वो एक व्यंग्यकार हैं तो उसने उन्हें बहुत सम्मान के साथ विदा किया।
उन्होंने कहा कि वे पेशे से एक डाक्टर हैं। वो दिनभर 100 के करीब मरीज देखते हैं। पर मरीज के इलाज के अलावा उनका उद्देश्य यह भी होता है कि बातों के दौरान मरीज को जाना जाए। वो हर मरीज से उसके मर्ज के अलावा उसके घर परिवार बाल बच्चों के बारे में पूछते हैं। इसीलिए हर रोज उनके पास पचासों कहानियां आती हैं। जीवन से रोज नया सीखना होता है। जब हम रोज नए अनुभवों से गुजरते हैं तब हम रोज नया लिख पाते हैं।
परसाई जी ने बहुत अच्छे कामों के साथ एक बुरा काम ये किया कि लेखकों की एक ऐसी पौध तैयार कर दी जिसे लगता है कि व्यंग्य लिखना बहुत सरल काम है। जिसे व्यंग्य पढ़ने की तमीज़ नहीं है वो व्यंग्य क्या लिखेगा। उन्होंने कहा कि मेरे कद में परसाई और शरद जोशी का कद शामिल है। न तो मैं उनसे अलग हूं और न उनसे बड़ा हूं। आप कुछ नहीं है यदि आपके पूर्वज आप में शामिल नहीं हैं।
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्रीवत्स दिवाकर ने कहा कि आज साहित्य का नया पाठक नहीं बन रहा है। समाज एक कुंद समाज में तब्दील हो गया है जहां लोगों का आपस में मिलना जुलना बंद हो गया है। पहले शहर में कुछ अड्डे हुआ करते थे जहां लोग इकठ्ठे होकर गप्पें भी मारा करते थे और विचार विमर्श भी करते थे। यह एक सामाजिक परिवर्तन है जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। यह चिंताजनक है।
कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। आभार प्रदर्शन राजेन्द्र दानी ने किया। आभार प्रदर्शन के बाद विवेचना के कलाकारों ने परसाई जी की रचना ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ का मंचन किया। नाटक का निर्देशन तपन बैनर्जी ने किया। वरिष्ठ कलाकार सीता राम सोनी और तपन बैनर्जी ने इस नाटक में अभिनय किया।
व्यंग्य पढ़ने और लिखने की तमीज़़
विवेचना, जबलपुर द्वारा हर साल की तरह इस साल भी 22 अगस्त को परसाई जन्मदिवस मनाया गया। कार्यक्रम के मुख्यअतिथि सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार डा ज्ञान चतुर्वेदी थे। नईदुनिया के जबलपुर संस्करण के संपादक श्री दिवाकर ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की।
कार्यक्रम के प्रारंभ में विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने परसाई जन्मदिवस के बारे में कहा कि विवेचना द्वारा हर 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिवस मनाया जाता है। लेखक जिस शहर में रहा हो वहां उसके मित्रों और पाठकों का उसे याद किया जाना जरूरी है।
लेखिका इंदु श्रीवास्तव ने परसाई जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक लेख पढ़ा। इंदु जी ने बताया कि परसाई जी सिर्फ लेखक नहीं थे वरन् एक तरह के समाज सुधारक थे जो अपनी तीखी लेखनी से समाज को बदलने की कोशिश करते थे। वे अपने लेखन के लिए चरित्र आम लोगों में से तलाशते थे और उसी के बहाने वो अपनी बात कह जाते थे। उनकी कही बातें तीर की तरह चुभती थीं। उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ झेला था। उनके ये जीवनानुभव ही उन्हें हर चरित्र के अंदर झांक सकने की शक्ति देते थे।
डा ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने भाषण की शुरूआत में कहा कि मुझे मुख्यअतिथि बनने से बहुत डर लगता है। क्योंकि धीरे धीरे मुख्यअतिथि बनने की आदत सी बन जाती है फिर ये लगने लगता है कि भई सबको बुला रहे हो, हमंे भी बुलाओ। कर कमल हो जाते हैं। एक लेखक की सबसे बड़ी विडंबना यही हो सकती है कि उसके कर कमल हो जाएं। जो हाथ उसकी पूंजी हैं वे ही किसी काम के न रहें।
आगे बात करते हुए डा ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि आज मेरा विषय ’व्यंग्य पढ़ने की तमीज़’ है। इससे मेरा तात्पर्य तमीज़ सिखाना नहीं है वरन् मेरा कहना ये है कि यदि मैं कोई बात कहना चाहता हूं और वो मैं अपने शब्दों के माध्यम से कह सका हूं तो मैं सफल हूं। दरअसल ये शीर्षक होना चाहिए ’व्यंग्य पढ़ने और लिखने की तमीज़’। पढ़ने की तमीज़ तो होना ही चाहिए पर साथ ही व्यंग्य लिखने की तमीज़’ भी होना चाहिए।
डा ज्ञान चतुर्वेदी ने कहा कि एक अच्छी व्यंग्य रचना किसे कहते हैं ? क्या है जिसके कारण हमें एक रचना अच्छी लगती है। एक पाठक हमारी रचना में अंततः क्या ढंूढता है। पाठक हमारी रचना में विचार तलाशता है। यदि आप व्यंग्यकार हैं तो आपकी रचना में व्यंग्य तो हो। व्यंग्य तो विचार से ही पैदा होता है। यदि आपके पास विचार ही नहीं है तो व्यंग्य कहां से पैदा होगा। इसीलिए जरूरी है कि हम समाज को समझें, समाज में रह रहे लोगों के दुख दर्द को जानें फिर डूब कर लिखें। जिस विचार ने तुम्हें नहीं पकड़ा वो दर्शक या पाठक को क्या पकड़ेगा।
एक अच्छी रचना की पहचान करने के लिए शास्त्र पढ़ना जरूरी नहीं है। व्यंग्य लिखना बहुत कठिन काम है। इसीलिए आप पायेंगे कि हिन्दी, उर्दू में व्यंग्यकार कितने हैं ? उन्होंने पाकिस्तान का जिक्र किया जहां शौकत थानवी की मृत्यु पर राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया। उन्होंने ब्रिटेन के हवाई अड्डे का भी उल्लेख किया जहां वे एक सम्मान लेने गये थे और हवाई अड्डे पर उन्हें रोक लिया गया और जब उन्होंने बताया कि वो एक व्यंग्यकार हैं तो उसने उन्हें बहुत सम्मान के साथ विदा किया।
उन्होंने कहा कि वे पेशे से एक डाक्टर हैं। वो दिनभर 100 के करीब मरीज देखते हैं। पर मरीज के इलाज के अलावा उनका उद्देश्य यह भी होता है कि बातों के दौरान मरीज को जाना जाए। वो हर मरीज से उसके मर्ज के अलावा उसके घर परिवार बाल बच्चों के बारे में पूछते हैं। इसीलिए हर रोज उनके पास पचासों कहानियां आती हैं। जीवन से रोज नया सीखना होता है। जब हम रोज नए अनुभवों से गुजरते हैं तब हम रोज नया लिख पाते हैं।
परसाई जी ने बहुत अच्छे कामों के साथ एक बुरा काम ये किया कि लेखकों की एक ऐसी पौध तैयार कर दी जिसे लगता है कि व्यंग्य लिखना बहुत सरल काम है। जिसे व्यंग्य पढ़ने की तमीज़ नहीं है वो व्यंग्य क्या लिखेगा। उन्होंने कहा कि मेरे कद में परसाई और शरद जोशी का कद शामिल है। न तो मैं उनसे अलग हूं और न उनसे बड़ा हूं। आप कुछ नहीं है यदि आपके पूर्वज आप में शामिल नहीं हैं।
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्रीवत्स दिवाकर ने कहा कि आज साहित्य का नया पाठक नहीं बन रहा है। समाज एक कुंद समाज में तब्दील हो गया है जहां लोगों का आपस में मिलना जुलना बंद हो गया है। पहले शहर में कुछ अड्डे हुआ करते थे जहां लोग इकठ्ठे होकर गप्पें भी मारा करते थे और विचार विमर्श भी करते थे। यह एक सामाजिक परिवर्तन है जिसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। यह चिंताजनक है।
कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। आभार प्रदर्शन राजेन्द्र दानी ने किया। आभार प्रदर्शन के बाद विवेचना के कलाकारों ने परसाई जी की रचना ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ का मंचन किया। नाटक का निर्देशन तपन बैनर्जी ने किया। वरिष्ठ कलाकार सीता राम सोनी और तपन बैनर्जी ने इस नाटक में अभिनय किया।
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