इप्टा की जबलपुर इकाई विवेचना ने 25 मई 2013 को जनसंस्कृति दिवस मनाया। इस अवसर पर सुविख्यात पत्रकार जयंत वर्मा ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि जब हम जनसंस्कृति की बात करते हैं तो आज के संदर्भ में इस जनसंस्कृति में जन कौन है। क्या ये जन वो है जो शहरों में समस्त सुविधाओं को भोगता हुआ आम आदमी बना हुआ है या वो है जो शहरों और गांवों में अपने पेट भरने की लड़ाई में दिन रात जूझ रहा है। हमें किस संस्कृति के लिये चिंतित होना चाहिए। गांवों और शहरों में दलित, शोषित पीड़ित जन ही भारत का असली जन है जिसकी आय 20 रूपये से भी कम है। कलाएं श्रम के संगीत से पैदा होती हैं। चाहे वो खेतों में काम करने वाला किसान हो या किसी भवन को बनाता मजदूर हो या किसी कोयला खदान में काम करने वाला मेहनतकश हो। भारत में हम जिन कलाओं को अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करते हैं वो तो दरअसल हमारे देश के मेहनतकश वर्ग के द्वारा रची गई हैं। चाहे वो गीत हों, संगीत हो या नृत्य हो।
इस अवसर पर बोलते हुए श्री जयंत वर्मा ने देश के विभिन्न हिस्सों में सास्कृतिक स्तर पर हो रही घटनाओं का भी विस्तार से जिक्र किया। जयंत वर्मा विभिन्न प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों में जाकर वहां के लोगों की समस्याओं की पड़ताल करते रहते हैं। उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक है।
अपने अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि गांवों में न्यूनतम वेतन की अवधारणा ही ध्वस्त हो गई है। क्योंकि गांव में सदियांे से खेत मजदूरों के लिए एक अलग परंपरा चली आ रही है।
बांधों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि बांधों से जिनकी जमीन जाती है उन्हें केवल मुआवजा मिलता है लेकिन उनका रहने का स्थान और रोजगार दोनों उनसे छिन जाता है। बांध के कारण विस्थापित लोग आज शहरों में आकर मजदूरी करने के लिए विवश हैं। उनके रहने का कोई ठिकाना नहीं है। उन्हें उस बांध से बन रही बिजली या खेती के लिए मिल रहे पानी का कोई लाभ नहीं मिल रहा है।
उन्होंने बताया कि पूंजीपतियों के दुश्चक्र में आज काम के घंटे आठ की जगह ग्यारह करने की न केवल कोशिश हो रही है वरन् एक हद तक वो कामयाब हो चुकी है। आज देश का नौजवान जो ’पैकेज’ पर काम कर रहा है दरअसल न तो उसके लिए कोई काम के घंटे तय हैं और न उसके रोजगार की कोई गारंटी है। वो केवल अपनी कंपनी के मुनाफा कमाने की मशीन है। हमारा देश पहले सामाजिक कल्याण की भावना - वेलफेयर स्टेट के रूप में काम करता था। आज हमारा देश अपने सभी मूल्य खोता जा रहा है।
देश के कानूनों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारा देश का कानून आज केवल पैसे वालों के लिए और पैसा कमाने वालों के काम का भर है। अंग्रेजों के समय से जो कानून बने हैं उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। और उन्हें जस का तस बनाकर रखा गया है। लाखों लोग जेल में बेकसूर सड़ रहे हैं और उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। गरीब आदिवासी न्यायाधीश के सामने बस एक शरीर के रूप में खड़ा रहता है। न वो कोई भाषा समझ सकता है और न न्याय प्राप्त करने के लिए उसके पास पैसा है।
इसके पूर्व विवेचना के सचिव और इप्टा के राष्टीय सचिव मंडल के सदस्य हिमांशु राय ने इप्टा की शुरूआत और इतिहास के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस वर्ष इप्टा की स्थापना को सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस संगठन ने देश के स्वाधीनता संग्राम में जमकर हिस्सा लिया। आजादी के बाद मची देश की उथलपुथल में इप्टा ने साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति की अलख जगाई। इप्टा में देश के सर्वश्रेष्ठ कलाकार शामिल हुए और उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ काम इप्टा के लिए किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो अरूण कुमार ने की। प्रो अरूण कुमार ने इस अवसर पर कहा कि इप्टा ने देश के सांस्कृतिक आंदोलन को एक नई दिशा दी। इप्टा से प्रेरणा लेकर हजारों नौजवानों ने कला जगत में अपना योगदान दिया। इसका कारण यह भी है कि इप्टा की शुरूआत ही बंगाल के भयानक दुर्भिक्ष से प्रभावित होकर हुई थी। इस अकाल में लाखों लोग बंगाल की सड़कों पर भूख प्यास से मर गए थे। तब बंगाल के कलाकार पूरे देश में बंगाल का हाल बताने निकले थे। यही इप्टा के बनने की पृष्ठभूमि है। इप्टा के इतने वर्षों तक सक्रिय रहने का कारण इसका आम आदमी से जुड़ाव है। इप्टा का तो नारा ही है कि रंगमंच की असली नायक जनता है। इसी सोच के साथ इप्टा से जुड़े हजारों लोगों ने काम किया है और जनता के संगीत, नृत्य, गायन वादन, नाटक को मंच पर प्रदर्शित किया है।
इस अवसर पर इन्दु श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाईं। उनकी गजलों को श्रोताओं ने बहुत पसंद किया।
संजय गर्ग ने बलराज साहनी द्वारा लिखे गये दो आलेख पढ़े। आलेखों के माध्यम से बलराज साहनी का क्रमिक विकास पता चलता है। बलराज साहनी ने इप्टा के सबसे कठिन दौर में काम किया और अपने समर्पण और त्याग से इप्टा की नींव को मजबूत किया। विवेचना के कलाकारों ने दो बीघा जमीन, सीमा और क्क्त फिल्म के जो गीत बलराज साहनी पर फिल्माए गए थे उन्हें प्रस्तुत किया। इस कार्यक्रम के साथ इप्टा का इतिहास भी दर्शकों के सामने प्रस्तुत हुआ।
कार्यक्रम का संचालन बांके बिहारी ब्यौहार ने किया। वसंत काशीकर ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि रंगमंच साम्प्रदायिकता और फासीवाद से संघर्ष का हथियार है। विवेचना के इस कार्यक्रम में शहर के सभी रंगकर्मी शामिल हुए।
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