दस दिन का अनशन परसाई जी की वो कहानी है जो आज से 50 वर्ष पूर्व लिखी गई है लेकिन ऐसा लगता है मानो आज लिखी गई है। दस दिन का अनशन में हमारे आस पास के नेता, धर्म और राजनीति के खिलाड़ी सभी दिखाई पड़ते हैं। विवेचना ने इस नाटक के माध्यम से जनचेतना को आलोड़ित करने और जाग्रत करने का काम किया है। नाटक के माध्यम से छोटे बड़े राजनैतिक हथकंडों को दर्शक आसानी से पकड़ सकता है। कैसे अचानक शहर में अशांति होती है और कैसे कर्फ्यू लगता है सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। कैसे छोटे और ओछे मुद्दे प्रमुख बना दिये जाते हैं।
27 जुंलाई 2013 को ’दस दिन का अनशन’ का मंचन जॉय स्कूल जबलपुर के विमला ग्रेस ऑडीटोरियम में संपन्न हुआ। विवेचना के इस नाटक मंचन 2011 में प्रारंभ हुए हैं। इसके मंचन जबलपुर में दो बार, भोपाल में दो बार के अलावा उज्जैन, बनारस में हो चुके हैं। जयपुर में 2 और उदयपुर में 4 अगस्त 2013 को इस नाटक के मंचन होंगे। भोपाल दूरदर्शन ने इस नाटक को शूट किया है और शीघ्र ही इसका प्रसारण होने जा रहा है।
दस दिन का अनशन का रचनाकाल सन् 1960 के आसपास का है। आजादी के लगभग 15 साल बाद का वक्त है। मुहल्ले का एक लफंगा बन्नू एक शादीशुदा स्त्री सावित्री के पीछे पड़ जाता है। वो उससे शादी करना चाहता है। इस सिलसिले में कई बार मोहल्ले में पिट चुका है। तब उसकी मुलाकात राजनीति के मंजे खिलाड़ी हरिप्रसाद बाबू से होती है। उनके पास हर बात का हल है और वो हर मुद्दे को ’इशू’ बनाना जानते हैं। हरिप्रसाद बाबा सनकीदास से मिलकर योजना बनाते हैं और बन्नू को दस दिन के लिए अनशन पर बैठा देते हैं। इसके बाद हर रोज एक नया हथकंडा आजमाया जाता है। एक दिन बन्नू के समर्थन में कवि सम्मेलन होता है तो एक दिन महिलाएं बन्नू की आरती करती हैं। युवकों का एक दल बन्नू के हक के लिए नुक्कड़ नाटक करता है। इस दौरान प्रधानमंत्री से बातचीत जारी है। विवाह कानून में संशोधन का बिल पास कराने की मांग भी उठ रही है। इस बीच कायस्थों और ब्राह्मणों के घरों में पत्थर फिकवा दिये जाते हैं क्योंकि सावित्री कायस्थ है और बन्नू ब्राह्मण। मामला गर्माने के लिए पुलिस थाने पर पथराव करवा दिया जाता है। जिससे शहर में कर्फ्यू लग जाता है। मामला पूरी तरह गर्म हो जाता है।
सावित्री जाकर हरिप्रसाद और सनकीदास से पूछती है कि ये लफंगा मुझ शादीशुदा औरत के पीछे पड़ा है। और तुम लोग इसका साथ दे रहे हो। बाबा सनकी दास कहते हैं कि देवी तुम तो ’इशू’ हो इशू से थोड़े ही पूछा जाता है कि हम आन्दोलन करें या नहीं। नाट्य रूपांतर और निर्देशन में निर्देशक वसंत काशीकर ने बहुत सावधानी से काम लिया है और पचास साल पुरानी कहानी को जस का तस रखा है। ताकि दर्शक अपने निष्कर्ष स्वयं निकाले। काले सफेद की पहचान खुद करे।
विवेचना के इस मंचन में सनकीदास बने संजय गर्ग, हरिप्रसाद बने सीता राम सोनी और सावित्री के रोल में इंदु सूर्यवंशी ने बहुत प्रभावित किया। अन्य भूमिकाओं में आशीष नेमा, अली, संजीव विश्वकर्मा, अभिनव काशीकर, अक्षय ठाकुर, ब्रजेन्द्र सिंह, आयुष राय, अंशुल साहू,
आदि ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया। प्रकाश व्यवस्था जगदीश यादव की थी और मेकअप संजय गर्ग व वसंत काशीकर ने किया। सेट सुरेश विश्वकर्मा ने बनाया था। नाटक का निर्देशन व नाट्य रूपांतर वसंत काशीकर ने किया।
विवेचना ने विजय नगर और आसपास के दर्शकों के लिए जॉय सी से स्कूल के विमला ग्रेस ऑडीटोरियम नाट्य मंचन कर सैकड़ों नए दर्शक बनाये। यही नहीं जॉय स्कूल के 250 बच्चों व स्टाफ को नाट्य मंचन से पूर्व रिहर्सल दिखाकर नाटक होने की प्रक्रिया से जोड़ा जिसे बच्चों और शिक्षिकाओं ने बहुत पसंद किया। इन दर्शकों को पहली बार पता चला कि नाटक कैसे तैयार होता है। यह एक तरह से थियेटर शिक्षण की कक्षा जैसा लगा।
नाटक के अंत में हिमांशु राय बांके बिहारी ब्यौहार व जॉय स्कूल की ओर से अखिलेश मेबिन ने आभार व्यक्त किया।
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