Thursday, October 23, 2014

विवेचना का बीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह: ऐतिहासिक सफल आयोजन

अजब नाटकों का गजब समारोह
विवेचना का बीसवां   राष्ट्रीय नाट्य समारोह ’बड़ी बुआ जी’ के भव्य मंचन के साथ 23 अक्टूबर 2013 को शुरू हुआ। समारोह के पहले दिन आयोजक संस्था विवेचना की इस प्रस्तुति ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया। हंसते हंसाते में यह नाटक कलाकारों और दर्शकों को एक संदेश दे गया। यह नाटक महान नाटककार बादल सरकार का लिखा हुआ है जो 1977 से मंचित हो रहा है। विवेचना के निर्देशक वसंत काशीकर ने इस नाटक में 20-22 कलाकारों के साथ  अनथक मेहनत कर नाटक को उंचाई पर पंहुचाया।
विवेचना के नाट्य समारोह में हर दिन प्रेक्षागृह के बाहर बने प्लेटफॉर्म पर शाम सात बजे से जबलपुर के कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। यह कार्यक्रम एक वातावरण का निर्माण करता है। दर्शकों को प्रेक्षागृह के अंदर होने वाली कलागतिविधि के लिए मानसिक तौर पर तैयार करता है। प्लेटफार्म प्रदर्शन जबलपुर के ही कलाकार करते हैं अतः दर्शकों और कलाकारों का एक भावनात्मक जुड़ाव भी रहता है। इसीलिए प्लेटफॉर्म प्रदर्शन बहुत सफल प्रयोग है। प्रथम दिन प्लेटफार्म प्रदर्शन में शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई। दूसरे दिन नृत्यांजलि ग्रुप के ही सदस्यों ने दर्शकों को आनंदित किया। तीसरे दिन जॉय स्कूल के बच्चों ने अपना गायन वादन प्रस्तुत किया। चौथे दिन बाल भवन की नृत्यांगनाओं ने कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया। पांचवे और अंतिम दिन मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपनी भावभीनी प्रस्तुति दी। प्रतिदिन सैकड़ों दर्शकों ने प्लेटफॉर्म प्रदर्शनों को देखा और सराहा।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह हेतु भव्य तरंग प्रेक्षागृह को सुरूचिपूर्ण तरीके से सजाया गया था। रंगीन कपड़ों और विशालकाय बोर्ड के माध्यम से तरंग प्रेक्षागृह दूर से ही मानो दर्शकों को निमंत्रण दे रहा था। तरंग प्रेक्षागृह का भवन वास्तुकला का शानदार नमूना है। 760 दर्शकों की क्षमता वाले इस प्रेक्षागृह में नाटक देखने का वास्तविक आनंद आता है। विवेचना के आयोजन की सफलता यह है कि शहर के केन्द्र से अपेक्षाकृत दूर होने के बावजूद हॉल प्रतिदिन पूर भरता है और दर्शक सही समय पर आकर प्रवेश पत्र खरीदकर नाटक देखते हैं।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का उद्घाटन जबलपुर के वरिष्ठ चित्रकार, शिक्षक और छायाकार श्री कामता सागर ने दीप जलाकर किया। इस अवसर पर एम पी पावर मैनेजमेंट कं लि के सीएमडी श्री मनुश्रीवास्तव, ई डी जनरेशन कं के सीएमडी श्री सुखबीर सिंह, ई डी श्री दीपक गुप्ता,  केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि के सचिव शैलेन्द्र महाजन व विवेचना के हिमाँशु राय, बाके बिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि उपस्थित थे। इस अवसर पर श्री कामता सागर का शॉल श्रीफल से अभिनंदन किया गया। श्री कामता सागर ने इस अवसर पर कहा  कला का काम एक तपस्या है जिसमें बांसुरी नहीं बजती आदमी बजता है। यह हमारे शहर के लिए गौरव की बात है कि विवेचना ने एक राष्ट्रीय आयोजन के बीस वर्ष पूरे किए हैं और शहर के दर्शकों को देश के प्रख्यात नाट्य निर्देशकों के 100 से अधिक श्रेष्ठ नाटक दिखाए हैं। हमारे शहर में नाटकों का बहुत अच्छा माहौल बना है।
उद्घाटन के पश्चात विवेचना के कलाकारों ने ’बड़ी बुआजी’ नाटक का मंचन किया। एक अपार्टमेंट के विभिन्न फ्लेटों  में रहने वाले लोग एक नाटक के मंचन की तैयारी कर रहे हैं। नाटक की मुख्य पात्र अनु के घर में रिहर्सल चल रही है। ठीक इसी समय अनु की बड़ी बुआ जी आ टपकतीं हैं जिन्हें नाटक से घृणा है। सभी लोग बुआ जी से यह बात छुपाते हैं कि वे नाटक कर रहे हैं। पर बार बार एक न एक पात्र आकर कुछ ऐसी बातें कर देता है कि बुआ जी को सब कुछ पता चल जाता है। वे अनु को अपने साथ लेकर दूसरे शहर चली जाती हैं। नाटक के लिए केवल एक दिन बचा है। तब शंभू अपनी तिकड़मों और चालों से स्थिति को संवारता है। अंततः शंभू और उसकी भाभी के हुनर से बड़ी बुआजी का मन बदल जाता है। वो नाटक की तारीफ करती हैं और शंभू और अनु की शादी करवा देती हैं।
अनु के पात्र में इंदु सूर्यवंशी और बड़ी बुआजी बनी शोभा उरखुड़े ने अपने अभिनय से अलग छाप छोड़ी। शंभू के रूप में आशीष नेमा, निताई के रूप में तपन बैनर्जी और अनु के पिता के रूप में सीताराम सोनी, फूफा के रोल में संजीव विश्वकर्मा ने बहुत प्रभावित किया। राजीव बने अभिनव काशीकर, भोला बने अंशुल साहू, अनाथ बने अक्षय ठाकुर, शशांक के रूप में बृजेन्द्र राजपूत, जगन बने आयुष राय, नौकर और हेमंत की भूमिकाओं में आयुष राठौर, और शंभू की भाभी के रोल में अर्चना सोनी ने सुंदर अभिनय किया। मि सेन और मिसेज सेन के रोल में संजय गर्ग और अमृत प्रभाकर ने बहुत आनंदित किया।
नाटक में प्रकाश परिकल्पना कमल जैन ने की थी जिसके लिए वे विशेष रूप से भोपाल से आए। प्रकाश के अद्भुत संयोजन से नाटक बहुत प्रभावशाली बना। सैट नाटक के उपयुक्त था जिसे सुरेश विश्वकर्मा और अभय पाटकर व हेमंत राठौर ने बनाया। नाटक के अंत में निर्देशक वसंत काशीकर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें  राष्ट्रीय नाट्य समारोह के दूसरे दिन अभिनव रंगमंडल उज्जैन के कलाकारों ने ’अरे शरीफ लोग’ का मंचन का दर्शकों की तारीफ बटोरी। जयंत दलवी के इस नाटक के मंचन कई दशकों से चल रहे हैं। नाटक ने जहां दर्शकों को ठहाके लगाकर हंसने के खूब मौके दिये वहीं अधेड़ उम्र के पुरूषों की तांक झांक की आदत की ओर हंसते हंसते ध्यान आकर्षित किया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से शैली धोपे के नृत्यांजलि ग्रुप के बच्चों के द्वारा नृत्य प्रस्तुति की गई जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
अरे शरीफ लोग एक शुद्ध हास्य नाटक है जो अधिक उम्र के लोगों की एक दमित इच्छा हास्य और व्यंग्य के जरिए उद्घाटित करता है। नाटक में चार परिवारों की कथा है जो एक दूसरे के पड़ोसी हैं। इसे व्यक्त करने के लिए निर्देशक शरद शर्मा ने बहुत माकूल सैट बनाया है। ये परिवार अपनी नोंकझोंक और लड़ाईयों के साथ रहे आ रहे हैं तभी एक खूबसूरत लड़की उनके बीच रहने के लिए आ जाती है। चारों परिवारों में एक एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति है। कोई शिक्षक है तो कोई डाक्टर। लड़की के आते ही सब के सब लड़की को चोरी छुपे घूरने में लग जाते हैं। इनकी पत्नियां होशियार हैं और लगातार  इनकी हरकतों को पकड़ती जाती हैं। वहीं रहने वाला एक युवक ये सब देखता रहता है और एक चाल चलता है जिससे बार बार हास्य की स्थितियां निर्मित होती हैं। चाल से सबके सब बेपर्दा हो जाते हैं और नाटक का अंत एक नैतिक शिक्षा के साथ होता है।
डॉक्टर के रूप में मिलिन्द करकरे, स्कूल मास्टर के रूप में दीपक भावसार और युवा के रूप में यश राय ने दर्शकों को अपने चुलबुले अभिनय से खूब हंसाया। अनोखेलाल के पत्नी के रोल में संध्या कैथवास बहुत प्रभावित किया। पति के उपर हावी रहने वाली पत्नी के किरदार को उन्होंने अच्छी तरह निभाया। पूरे नाटक ने दर्शकों को बंाधे रखा। नाटक मानो हास्यास्पद घटनाओं का पूरा एक सिलसिला है जिसमें दर्शक पूरे समय हंसता रहता  है।  
नाटक के अंत में निर्देशक शरद शर्मा को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें  राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरे दिन मुखातिब थियेटर ग्रुप के कलाकारों ने ’द शैडो ऑफ ऑथेलो का मंचन किया गया। इस नाटक का लेखन व निर्देशन इश्तियाक आरिफ खान ने किया है। इश्तियाक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक हैं और इन दिनों मुम्बई में सीरियल और फिल्मों में लगातार अभिनय कर  रहे हैं। इस नाटक के कथानक और उसकी निराले अंदाज में की गई प्रस्तुति ने दर्शकों को अभिभूत कर दिया।
निर्देशक ने बताया कि वे शेक्सपियर के नाटक ऑथेलो से बहुत प्रभावित हैं। हमारे समाज में और मानवजीवन में झूठ, ईर्ष्या, फरेब, षड़यंत्र इस तरह से शामिल हैं कि राजाओं व अमीरों से लेकर साधारण जन तक सभी इसके शिकार होते हैं और जब सचाई सामने आती है तब तक सब बर्बाद हो चुका होता है। वे चाहते थे कि इस नाटक को मंचित करें लेकिन भारतीय परिस्थितियों और पात्रों के साथ। इसी ने उन्हें ’द शैडो ऑफ ऑथेलो’ के लेखन की प्रेरणा दी। फिल्म ’ओंकारा’ देखकर एक गांव के लोग लौटते हैं तो प्रभावित होकर सोचते हैं कि अपने गांव में यही फिल्म बनाएंगे। गांव में फिल्म तो बन नहीं सकती इसीलिए तय होता है कि क्येांकि यह फिल्म किसी ओथेला नाम के नाटक पर आधारित है इसीलिए नाटक ही किया जाए। शहर में संघर्ष कर भाग आया एक असफल कलाकार दिल्ली से एक निर्देशक को नाटक के निर्देशन के लिए ले आता है। संघर्ष यह है कि गांव के लोग फिल्म से प्रभावित हैं और निर्देशक गंभीरता से उनसे नाटक करवाना चाहते हैं। नाटक की विशेषता यह है कि जब ऑथेलो नाटक की रिहर्सल चालू होती है तो नाटक के अंदर और बाहर ऑथेलो की घटनाएं घटने लगती है। असफल कलाकार जो निर्देशक को दिल्ली से लाया है वही उनके खिलाफ षडयंत्र करने लगता है। अंत में नाटक होता है और सारी गलतफ़हमियां दूर हो जाती हैं। इस नाटक में नाटक के अंदर नाटक का प्रयोग किया गया है।
असली नाटक में ऑथेलो को उसकी पत्नी डेस्डीमोना के खिलाफ इस तरह से गलतफहमियों में डाला जाता है कि वो अपनी वफादार पत्नी की हत्या कर देता है। लैगो नाम का पात्र कैसियो के कमरे में ऑथेलो की पत्नी का रूमाल रख देता है जिससे यह प्रभाणित हो कि कैसियो और डेस्डीमोना एकदूसरे से प्रेम करते हैं। यह घटना अलग तरीके से नाटक में भी घटित होती है।
नाटक में भोले बने बोलोराम दास, सेठ - नरेश मलिक, दबंग- अभिनय शर्मा, गंगाराम- आशीष शुक्ला बाबूलाल-प्रसून सिंह, मंगलू-अनिल मंहगू जाटव, सुलेमान- फैज मुहम्मद अंकुर देवरिया-इश्तियाक, नयनी देवी - साहिबा विज, रजिया - किरण दत्त खोजे, चंदन- विश्वनाथ चैटर्जी, अंकुर जी-धीरेन्द्र द्विवेदी ने बहुत प्रभावित किया। यह एक टीम वर्क था जिसमें सबने अपने अपने किरदारों के साथ  न्याय किया।  
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से बालभवन के कलाकारों ने संजय गर्ग के मार्गदर्शन में शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
  नाटक के अंत में निर्देशक  श्री इश्तियाक आरिफ खान को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना के बीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के चौथे दिन सदा आर्ट्स सोसायटी दिल्ली के कलाकारों द्वारा ’कैद-ए-हयात’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक हिन्दी के वरिष्ठ नाटककार सुरेन्द्र वर्मा हैं।  इस नाटक की में उर्दू भाषा के लालित्य का रसास्वादन  होता है। नाटक का निर्देशन डा दानिश इकबाल ने किया है। दानिश राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक  हैं।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से जॉय स्कूल के बच्चों द्वारा  शास्त्रीय व लोकगायन, वादन की प्रस्तुति की गई। जिसे तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
विवेचना के नाट्य समारोह के चौैथे दिन प्रस्तुत नाटक ’कैद ए हयात’ भारत के महान शायर ग़ालिब के जीवन की पर्ताें को खोलता है। गालिब को लोग मोहब्बत की शायरी का उंचा फनकार मानते हैं मगर गालिब अपने जीवन में किस तरह की परेशानियों से जूझते रहे और इन्हीं सब के बीच उनने दुनिया को श्रेष्ठ रचनाएं दीं। गालिब का काल सन् 1857 के समय का है। वो अपने अंतिम दिनों में बहुत आर्थिक कष्ट में रहे। उनकी बीवी से उनकी बनती नहीं थी। वहीं उनके दीवान की नकल करने वाली कातिबा से उनका बहुत प्रेम था। गालिब को अपनी पेंशन के संबंध में कलकत्ता जाना पड़ा। जब वो लौटे तब तक कातिबा मृत्युशैया पर थी मगर एक सेठ ने उनपर अपनी वसूली के लिए मुकदमा दायर कर दिया था जिससे वो घर में नज़रबंद थे। गालिब ने बहुत कोशिश की कि कातिबा से मिल लें मगर तबतक कातिबा के मरने की खबर आ गई।
गालिब के किरदार को निर्देशक दानिश इकबाल ने खुद निभाया है। और दर्शकों को अपनी अभिनय क्षमता से अभिभूत कर दिया। उसी तरह क़ातिबा के किरदार में निधि मिश्रा ने अभिनय की उंचाईयों का छुआ। पूरे नाटक में सैट बहुत सुंदर था और गालिब के जमाने के रहनसहन को प्रकट करता था। नाटक में जो वेशभूषा इस्तेमाल की गई उससे नाटक बहुत सशक्त बना। सभी पुरूष और महिला  पात्रों ने अपने चरित्र के अनुरूप वेशभूषा तो पहनी ही लेकिन उसकी खूबसूरती और बनावट देखते ही बनती थी। इसी तरह नाटक में प्रकाश परिकल्पना में  जावेद ने कमाल किया। पूरा नाटक एक रंगीन सपने सा दिखता रहा हालांकि नाटक का मूड दु़ःखभरा था पर बीच बीच में नवोदित शायर परवेज ने आकर काफी हंसाया भी। नाटक में उस जमाने की उर्दू का इस्तेमाल बहुत सहज और सुंदर था। उर्दू भाषा के लालित्य से दर्शक दो चार हुए।  
  नाटक के अंत में निर्देशक डा दानिश इकबाल  को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
अंतिम दिन ’अंक’ मुम्बई के कलाकारों द्वारा ’जात ही पूछो साधू की’ नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक मराठी के वरिष्ठ नाटककार स्व विजय तेंदुलकर हैं। यह उनका सर्वाधिक चर्चित नाटक है। सन् सत्तर के दशक से इस नाटक ने हिन्दी और मराठी नाट्य जगत में धूम मचा रखी है। इस नाटक का निर्देशन दिनेश ठाकुर ने किया है। स्व दिनेश ठाकुर विवेचना के 14 वें नाट्य समारोह में सन् 2007 में जबलपुर आए थे। विगत वर्ष उनका निधन हो गया।
नाटक के मंचन के पूर्व शाम सात बजे से मध्यप्रदेश विद्युत मंडल परिवार के कलाकारों ने अपने कथक व लोकनृत्यों के प्रदर्शन से दर्शकों का दिल जीत लिया। यह कार्यक्रम  तरंग प्रेक्षागृह परिसर के बाहर प्लेटफार्म पर प्रस्तुत किया गया।
‘जात ही पूछो साधु की’ विजय तेंदुलकर का सर्वाधिक प्रसिद्ध नाटक है जो हंसते हंसाते भारतीय समाज के जातिवाद पर प्रहार करता है पर साथ ही आज के समाज के अंतर्विरोधों को भी उभारता है। विजय तेंदुलकर ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था में जातिवाद को व्यंग्यात्मक आख्यान की तरह लिया है।
महीपत वाभ्ररूवाहन पिछड़ी जाति का एक बेरोजगार युवक है। जो किसी तरह थर्ड डिवीजन से हिंदी भाषा एवं साहित्य में एमए पास कर लेता है। हिंदी लेक्चरार के पद के लिए अनेक जगह आवेदन करने के बाद भी उसे इंटरव्यू का बुलावा इसलिए नहीं आता कि अपनी जाति में वह पहला एमए पास है। इसी बीच उसे अचानक एक ग्रामीण कॉलेज में नौकरी मिल जाती है क्योंकि उस पद के लिए वही अकेला उम्मीदवार था। कालेज के चेयरमैन की मूर्ख भांजी को भी कुछ दिन बाद हिंदी लेक्चरार के रूप में नियुक्त कर लिया जाता है। महीपत के खिलाफ घटनाओं का दौर शुरू हो जाता है। अपनी नौकरी बचाने के लिए महीपत चेयरमैन की भांजी नलिनी से इश्क लड़ाने और विवाह रचाने की योजना बनाता है। महीपत समझ जाता है जाति का क्या महत्व है और खास तौर पर उसकी निचली जाति के होने का। अपनी महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए वो एक उलटे सीधे जुगाड़ बनाता है। अंततः महीपत का क्या होता है ? वह नौकरी से निकाल दिया जाता है और वह वापस अपनी पुरानी शिक्षित बेरोजगार की स्थिति मेंपंहुच जाता है। नाटक की खास बात यह है कि लेखक ने अपनी बात नाटक में हास्य के माध्यम से कहीं है जिससे नाटक बहुत रोचक बन गया है। दर्शक लगातार हंसते हुए नाटक देखते रहे।
मंच पर अमन गुप्ता, एस सी माख़ीजा, प्रीता माथुर, बिन्नी मरीवाला, रोहित चौधरी, प्रवाल मजूमदार, कुमकुम मजूमदार, प्रशांत, संदीप जय, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे, माधुरी अपने अभिनय का जादू बिखेर रहे थे जबकि मंच परे का काम नितिन शर्मा, सुनील देशमुख, रोहित, सुमित, नीलेश, राकेश, प्यारे ने संभाला।     नाटक के अंत में अंक की प्रभारी श्रीमती प्रीता माथुर ठाकुर को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई।
विवेचना का  बीसवां  समारोह बहुत सफल रहा। हर रोज लगभग एक हजार दर्शक आए। हर नाटक का पूरा रसास्वादन किया। सभी नाटक अलग अलग रंग के थे। इस बार दो नाट्य दल पहली बार जबलपुर आए जबकि दो नाट्य दल पहले भी जबलपुर आ चुके हैं। दर्शकों द्वारा विवेचना के राष्टीय नाट्य समारोह के लिए किया जाने वाला वर्ष भर का इंतजार  सफल रहा। विवेचना के हिमांशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर आदि ने सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त किया। 

No comments:

Post a Comment