नाटक का कथासार
यह नाटक मूलतः लूशुन की कहानी पर आधारित है। गांव में उत्सव चल रहा है, गांव में एक गढ्ढा खोदकर एक कालकोष गाड़ा जा रहा है जिसमें गांव के प्रमुख बाबू साहब और उनके कुनबे के बारे में जानकारी डाली जा रही है। गांव का भोला भाला युवक सूपना अचानक यह मांग उठा देता है कि कालकोष में गांव के सभी लोगों की जानकारी डाली जाये। कालकोष नहीं गड़ पाता। बाबू साहब इस बात से बहुत खफा हो जाते हैं। गांव में सूपना और बाबू साहब के बीच संघर्ष चालू हो जाता है। सूपना अपना सपना पूरा करने की कोशिश करता है और बाबू साहब के अपने पैंतरे चलते हैं। एक बार तो सूपना को शहर भागना पड़ता है पर शहर से लौटने पर सूपना का व्यवहार बदल जाता है। कालकोष में सामान्यजनों की जानकारी डाले जाने के बारे में उसका निश्चय और दृढ़ हो जाता है। कालकोष के बहाने बहुत रोचक सामाजिक संघर्ष जन्म लेता है।
नाट्य दल लगभग 15 कलाकारों का है। नाटक की अवधि 1 घंटा 20 मिनिट है।
निर्देशकीय
’’सूपना का सपना’’ मेरा प्रिय नाटक है। इस नाटक को पढ़ने के बाद मैं बेचैन हो गया। इसके कथ्य और कहने के तरीके ने मुझे बहुत प्रभावित किया। जब भी हम इतिहास पढ़ते हैं तो वो केवल किसी राजा महाराजा बादशाह की कारगुजारियों का विवरण होता है। उसमें उन करोड़ों लोगों का कोई विवरण नहीं होता जो उस समय रहे और बिना अपना नाम दर्ज कराये मर गये। किसी शहर गांव या कस्बे में कोई दुर्घटना होती है तो विशिष्ट व्यक्ति हो तो उसका नाम छपता है और नहीं तो केवल संख्या छपती है। ’’दुर्घटना में 22 ग्रामीण मारे गये’’
’’सूपना का सपना’’ में इस बात को उठाया गया है कि इतिहास में कौन जायेगा ? अब तक इतिहास में आम आदमी, उसके दुःख तकलीफ का कोई उल्लेख नहीं है। यदि आम आदमी भी अपने अस्तित्व की चिंता करने लगे तो समाज हिलने लगता है। इतिहास में विद्रोह और क्रांतियां आम आदमी के इसी संघर्ष का परिणाम रही हैं। लू शुन की कहानी में और शाहिद अनवर के इस नाटक में आम आदमी के इसी संघर्ष को अभिव्यक्ति दी गई है। आम आदमी का संघर्ष भी शाश्वत है और खास आदमी का उसे कुचल डालने का षडयंत्र भी शाश्वत है। हमेशा से होता आ रहा है। न उनकी जीत नई है न अपनी हार नई। उसके बावजूद आम आदमी अपनी लड़ाई बंद नहीं करता। परिणाम जानते हुए भी आम आदमी अपनी लड़ाई जारी रखता है। इसी से समाज करवट लेता है।
आज के दौर में जब एक ध्रुवीय दुनिया अस्तित्व में है, बहुत से सूपना जैसे देश अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं। ये लड़ाई उनके लिये सूपना की लड़ाई साबित होगी पर फिर भी लड़ रहे हैं। क्योंकि ऐसी ही किसी लड़ाई के बीच से कभी फ्रांसीसी क्रांति जन्मी थी, कभी रूसी क्रांति और कभी चीनी क्रांति। इसीलिये सूपना का सपना आज का नाटक है।
मैं नाटक दर्शकों के लिये तैयार करता हूं। इसीलिये नाटक के कथ्य, नाटक का कथा प्रवाह, नाटक के तनाव को पूरी तरह से बनाये रखता हूं परंतु दर्शक के लिये नाटक की रोचकता और सरलता को भी बनाये रखता हूं। इसमें किसी तरह का कोई समझौता नहीं करता हूं। तकनीक या कठिन दृश्यबंध से दर्शकों को आतंकित करना मेरा अभीष्ट नहीं है। मेरा दर्शक कस्बों और छोटे शहरों में फैला है जहां न कोई मंच है न नाटक देखने की परंपरा। उनके बीच में नाटक अपना स्तर बनाये रखते हुए अपनी बात कह जाये यही मेरा अभीष्ट है। जबलपुर में काम करते हुए प्रशिक्षित अभिनेता और तकनीकी विशेषज्ञ मिलना कठिन है पर मेरी कोशिश होती है कि नाटक के हर पक्ष में पूरा ध्यान दिया जाये और उसे पूर्ण बनाया जाये। इस नाटक में संगीत सहयोगी पक्ष है, प्रमुख नहीं है। इसीलिये संगीत रिकाॅउैड रखा गया है। मेरी कोशिश है कि सूपना के संघर्ष को आम दर्शक तक पंहुचा सकूं। ।
मंच पर
सूपना संजय गर्ग
बाबू साब सीताराम सोनी
माया मास्टरनी इंदु सूर्यवंशी
ग्रामीण सुरभि, के के जैन
मंच परे
वस्त्र विन्यास वसंत काशीकर, संजय गर्ग,
रूप सज्जा इंदु सूर्यवंशी, लक्ष्मी राजपूत
मंच प्रबंधन अजय जायसवाल
प्रकाश /संगीत वसंत काशीकर,
प्रस्तुति प्रबंधन बांकेबिहारी ब्यौहार, हिमंशु राय,
लेखक शाहिद अनवर
निर्देशक वसंत काशीकर