Tuesday, October 21, 2014

दस दिन का अनशन का मंचन जॉय स्कूल में संपन्न



दस दिन का अनशन परसाई जी की वो कहानी है जो आज से 50 वर्ष पूर्व लिखी गई है लेकिन ऐसा लगता है मानो आज लिखी गई है। दस दिन का अनशन में हमारे आस पास के नेता, धर्म और राजनीति के खिलाड़ी सभी दिखाई पड़ते हैं। विवेचना ने इस नाटक के माध्यम से जनचेतना को आलोड़ित करने और जाग्रत करने का काम किया है। नाटक के माध्यम से छोटे बड़े राजनैतिक हथकंडों को दर्शक आसानी से पकड़ सकता है। कैसे अचानक शहर में अशांति होती है और कैसे कर्फ्यू लगता है सब कुछ स्पष्ट हो जाता है। कैसे छोटे और ओछे मुद्दे प्रमुख बना दिये जाते हैं।
27 जुंलाई 2013 को ’दस दिन का अनशन’ का मंचन जॉय स्कूल जबलपुर के विमला ग्रेस ऑडीटोरियम में संपन्न हुआ। विवेचना के इस नाटक मंचन 2011 में प्रारंभ हुए हैं। इसके मंचन जबलपुर में दो बार, भोपाल में दो बार के अलावा उज्जैन, बनारस में हो चुके हैं। जयपुर में 2 और उदयपुर में 4 अगस्त 2013 को इस नाटक के मंचन होंगे। भोपाल दूरदर्शन ने इस नाटक को शूट किया है और शीघ्र ही इसका प्रसारण होने जा रहा है।
दस दिन का अनशन का रचनाकाल सन् 1960 के आसपास का है। आजादी के लगभग 15 साल बाद का वक्त है। मुहल्ले का एक लफंगा बन्नू एक शादीशुदा स्त्री सावित्री के पीछे पड़ जाता है। वो उससे शादी करना चाहता है। इस सिलसिले में कई बार मोहल्ले में पिट चुका है। तब उसकी मुलाकात राजनीति के मंजे खिलाड़ी हरिप्रसाद बाबू से होती है। उनके पास हर बात का हल है और वो हर मुद्दे को ’इशू’ बनाना जानते हैं। हरिप्रसाद बाबा सनकीदास से मिलकर योजना बनाते हैं और बन्नू को दस दिन के लिए अनशन पर बैठा देते हैं। इसके बाद हर रोज एक नया हथकंडा आजमाया जाता है। एक दिन बन्नू के समर्थन में कवि सम्मेलन होता है तो एक दिन महिलाएं बन्नू की आरती करती हैं। युवकों का एक दल बन्नू के हक के लिए नुक्कड़ नाटक करता है। इस दौरान प्रधानमंत्री से बातचीत जारी है। विवाह कानून  में संशोधन का बिल पास कराने की मांग भी उठ रही है। इस बीच कायस्थों और ब्राह्मणों के घरों में पत्थर फिकवा दिये जाते हैं क्योंकि सावित्री कायस्थ है और बन्नू ब्राह्मण। मामला गर्माने के लिए पुलिस थाने पर पथराव करवा दिया जाता है। जिससे शहर में कर्फ्यू लग जाता है। मामला पूरी तरह गर्म हो जाता है।
सावित्री जाकर हरिप्रसाद और सनकीदास से पूछती है कि ये लफंगा मुझ शादीशुदा औरत के पीछे पड़ा है। और तुम लोग इसका साथ दे रहे हो। बाबा सनकी दास कहते हैं कि देवी तुम तो ’इशू’ हो इशू से थोड़े ही पूछा जाता है कि हम आन्दोलन करें या नहीं। नाट्य रूपांतर और निर्देशन में निर्देशक वसंत काशीकर ने बहुत सावधानी से काम लिया है और पचास साल पुरानी कहानी को जस का तस रखा है। ताकि दर्शक अपने निष्कर्ष स्वयं निकाले। काले सफेद की पहचान खुद करे।
विवेचना के इस मंचन में सनकीदास बने संजय गर्ग, हरिप्रसाद बने सीता राम सोनी और सावित्री के रोल में इंदु सूर्यवंशी ने बहुत प्रभावित किया। अन्य भूमिकाओं में आशीष नेमा, अली, संजीव विश्वकर्मा, अभिनव काशीकर, अक्षय ठाकुर, ब्रजेन्द्र सिंह, आयुष राय, अंशुल साहू,          
आदि ने बहुत सधा हुआ अभिनय किया। प्रकाश व्यवस्था जगदीश यादव की थी और मेकअप संजय गर्ग व वसंत काशीकर ने किया। सेट सुरेश विश्वकर्मा ने बनाया था। नाटक का निर्देशन व नाट्य रूपांतर वसंत काशीकर ने किया।
विवेचना ने विजय नगर और आसपास के दर्शकों के लिए जॉय सी से स्कूल के विमला ग्रेस ऑडीटोरियम नाट्य मंचन कर सैकड़ों नए दर्शक बनाये। यही नहीं जॉय स्कूल के 250 बच्चों व स्टाफ को नाट्य मंचन से पूर्व रिहर्सल दिखाकर नाटक होने की प्रक्रिया से जोड़ा जिसे बच्चों और शिक्षिकाओं ने बहुत पसंद किया। इन दर्शकों को पहली बार पता चला कि नाटक कैसे तैयार होता है। यह एक तरह से थियेटर शिक्षण की कक्षा जैसा लगा।
नाटक के अंत में हिमांशु राय बांके बिहारी ब्यौहार व जॉय स्कूल की ओर से अखिलेश मेबिन ने आभार व्यक्त किया। 

विवेचना के नाटक ’मानबोध बाबू’ का मंचन



विवेचना जबलपुर ने काफी दिनों बाद एक बार फिर अपने पुराने नाटक ’मानबोध बाबू’ का मंचन 29 जून 2013 को जाय स्कूल विजयनगर जबलपुर में किया। यह नाटक चन्द्रकिशोर जायसवाल की इसी नाम की कहानी पर आधारित है। यह नाटक दर्शकों में जादू का सा असर करता है। नाटक में दो मुख्य पात्र हैं लेकिन उनकी बातचीत कभी प्रहसन तो कभी उपदेश का काम करती है। पूरा नाटक नव रसों से युक्त है। इसमें रहस्य भी है रोमांच भी है, कौतूहल भी है। हास्य और रोचकता भी है। जबलपुर में काफी दिनों बाद हुए मानबोध बाबू के मंचन को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया।
मानबोध बाबू में विवेचना के दो वरिष्ठ कलाकार मुख्य पात्र हैं। सीताराम सोनी और संजय गर्ग। मानबोध बाबू एक मस्तमौला जीव हैं जिन्होंने अपनी नौकरी-व्यापार से सन्यास ले लिया है। ये कलकत्ता में रहते हैं। और समय समय पर घूमने निकल पड़ते हैं। इस समय वो मुम्बई से कलकत्ता जा रहे हैं। उनके साथ सामने की बर्थ पर मोहनलाल यात्रा कर रहे हैं। मिलते ही दोनों में बातचीत शुरू हो जाती है। मानबोध बाबू का स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वे हिलमिल जाते हैं। जब मानबोध बाबू को पता चलता है कि मोहनलाल अपनी गांव की जमीन जायदाद बेचकर अपने लड़कों के पास रहने जाने का इरादा कर रहे हैं तो वे चौंक जाते हैं। वे मोहन लाल को इस निर्णय का नफा नुकसान समझाते हैं। उनका कहना है कि अपना सबकुछ बेचकर बच्चों के साथ रहना बहुत बड़ी भूल है। आप परजीवी होकर नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं। महानगरों के बारे में भी उनका अलग अनुभव है। वे मुम्बई, दिल्ली और कलकत्ता की अलग अलग झांकी दिखाते हैं। इस झांकी में निरंतर अमानवीय होते जा रहे महानगरीय मानव की विविध छबियां प्रस्तुत होती हैं।
मानबोध बाबू की दृष्टि में सबसे अच्छा महानगर है कलकत्ता। उसके बारे में वो कहते हैं कि कलकत्ता में जिंदगी आपके साथ साथ चलती है। मानबोध बाबू अपनी बातचीत के दौरान अच्छी जिंदगी जीने का दर्शन सिखाते जाते हैं। आपको भोला नहीं रहना है। मूर्ख नहीं रहना है। हमेशा चौकन्ना  रहना है। हमेशा लड़ते रहना है। वो अच्छी अच्छी किताबों को पढ़ने की सलाह देते हैं। नाटक का अंत बहुत आकस्मिक और रहस्यपूर्ण है जो कई साल सवाल छोड़ जाता है।
नाटक में निर्देशक ने अनेक दृश्यों का निर्माण अपनी कल्पना से किया है जो बहुत प्रभावशाली है। नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। नाट्य रूपांतर संजय गर्ग का है।   

दलित पीड़ित की संस्कृति ही जनसंस्कृति है।



इप्टा की जबलपुर इकाई विवेचना ने 25 मई 2013 को जनसंस्कृति दिवस मनाया। इस अवसर पर सुविख्यात पत्रकार जयंत वर्मा ने मुख्य वक्ता के रूप में बोलते हुए कहा कि जब हम जनसंस्कृति की बात करते हैं तो आज के संदर्भ में इस जनसंस्कृति में जन कौन है। क्या ये जन वो है जो शहरों में समस्त सुविधाओं को भोगता हुआ आम आदमी बना हुआ है या वो है जो शहरों और गांवों में अपने पेट भरने की लड़ाई में दिन रात जूझ रहा है। हमें किस संस्कृति के लिये चिंतित होना चाहिए। गांवों और शहरों में दलित, शोषित पीड़ित जन ही भारत का असली जन है जिसकी आय 20 रूपये से भी कम है। कलाएं श्रम के संगीत से पैदा होती हैं। चाहे वो खेतों में काम करने वाला किसान हो या किसी भवन को बनाता मजदूर हो या किसी कोयला खदान में काम करने वाला मेहनतकश हो। भारत में हम जिन कलाओं को अपनी उपलब्धि के रूप में पेश करते हैं वो तो दरअसल हमारे देश के मेहनतकश वर्ग के द्वारा रची गई हैं। चाहे वो गीत हों, संगीत हो या नृत्य हो।
इस अवसर पर बोलते हुए श्री जयंत वर्मा ने देश के विभिन्न हिस्सों में सास्कृतिक स्तर पर हो रही घटनाओं का भी विस्तार से जिक्र किया। जयंत वर्मा विभिन्न प्रदेशों के ग्रामीण इलाकों में जाकर वहां के लोगों की समस्याओं की पड़ताल करते रहते हैं। उनका अनुभव संसार बहुत व्यापक है।
अपने अनुभवों को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि गांवों में न्यूनतम वेतन की अवधारणा ही ध्वस्त हो गई है। क्योंकि गांव में सदियांे से खेत मजदूरों के लिए एक अलग परंपरा चली आ रही है।
बांधों का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि बांधों से जिनकी जमीन जाती है उन्हें केवल मुआवजा मिलता है लेकिन उनका रहने का स्थान और रोजगार दोनों उनसे छिन जाता है। बांध के कारण विस्थापित लोग आज शहरों में आकर मजदूरी करने के लिए विवश हैं। उनके रहने का कोई ठिकाना नहीं है। उन्हें उस बांध से बन रही बिजली या खेती के लिए मिल रहे पानी का कोई लाभ नहीं मिल रहा है।
उन्होंने बताया कि पूंजीपतियों के दुश्चक्र में आज काम के घंटे आठ की जगह ग्यारह करने की न केवल कोशिश हो रही है वरन् एक हद तक वो कामयाब हो चुकी है। आज देश का नौजवान जो ’पैकेज’ पर काम कर रहा है दरअसल न तो उसके लिए कोई काम के घंटे तय हैं और न उसके रोजगार की कोई गारंटी  है। वो केवल अपनी कंपनी के मुनाफा कमाने की मशीन है। हमारा देश पहले सामाजिक कल्याण की भावना - वेलफेयर स्टेट के रूप में काम करता था। आज हमारा देश अपने सभी मूल्य खोता जा रहा है।
देश के कानूनों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारा देश का कानून आज केवल पैसे वालों के लिए और पैसा कमाने वालों के काम का भर है। अंग्रेजों के समय से जो कानून बने हैं उनमें कोई बदलाव नहीं हुआ है। और उन्हें जस का तस बनाकर रखा गया है। लाखों लोग जेल में बेकसूर सड़ रहे हैं और उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। गरीब आदिवासी न्यायाधीश के सामने बस एक शरीर के रूप में खड़ा रहता है। न वो कोई भाषा समझ सकता है और न न्याय प्राप्त करने के लिए उसके पास पैसा है।  
इसके पूर्व विवेचना के सचिव और इप्टा के राष्टीय सचिव मंडल के सदस्य हिमांशु राय ने इप्टा की शुरूआत और इतिहास के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि इस वर्ष इप्टा की स्थापना को सत्तर वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस संगठन ने देश के स्वाधीनता संग्राम में जमकर हिस्सा लिया। आजादी के बाद मची देश की उथलपुथल में इप्टा ने साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति की अलख जगाई। इप्टा में देश के सर्वश्रेष्ठ कलाकार शामिल हुए और उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ काम इप्टा के लिए किया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रो अरूण कुमार ने की। प्रो अरूण कुमार ने इस अवसर पर कहा कि इप्टा ने देश के सांस्कृतिक आंदोलन को एक नई दिशा दी। इप्टा से प्रेरणा लेकर हजारों नौजवानों ने कला जगत में अपना योगदान दिया। इसका कारण यह भी है कि इप्टा की शुरूआत ही बंगाल के भयानक दुर्भिक्ष से प्रभावित होकर हुई थी। इस अकाल में लाखों लोग बंगाल की सड़कों पर भूख प्यास से मर गए थे। तब बंगाल के कलाकार पूरे देश में बंगाल का हाल बताने निकले थे। यही इप्टा के बनने की पृष्ठभूमि है। इप्टा के इतने वर्षों तक सक्रिय रहने का कारण इसका आम आदमी से जुड़ाव है। इप्टा का तो नारा ही है कि रंगमंच की असली नायक जनता है। इसी सोच के साथ इप्टा से जुड़े हजारों लोगों ने काम किया है और जनता के संगीत, नृत्य, गायन वादन, नाटक को मंच पर प्रदर्शित किया है।
इस अवसर पर इन्दु श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाईं। उनकी गजलों को श्रोताओं ने बहुत पसंद किया।
संजय गर्ग ने बलराज साहनी द्वारा लिखे गये दो आलेख पढ़े। आलेखों के माध्यम से बलराज साहनी का क्रमिक विकास पता चलता है। बलराज साहनी ने इप्टा के सबसे कठिन दौर में काम किया और अपने समर्पण और त्याग से इप्टा की नींव को मजबूत किया। विवेचना के कलाकारों ने दो बीघा जमीन, सीमा और क्क्त फिल्म के जो गीत बलराज साहनी पर फिल्माए गए थे उन्हें प्रस्तुत किया। इस कार्यक्रम के साथ इप्टा का इतिहास भी दर्शकों के सामने प्रस्तुत हुआ।
कार्यक्रम का संचालन बांके बिहारी ब्यौहार ने किया। वसंत काशीकर ने आभार व्यक्त करते हुए कहा कि रंगमंच साम्प्रदायिकता और फासीवाद से संघर्ष का हथियार है। विवेचना के इस कार्यक्रम में शहर के सभी रंगकर्मी शामिल हुए।

जबलपुर में गोष्ठी

विवेचना के युवा कलाकारों के बीच संवाद की दृष्टि से एक विचार गोष्ठी का आयोजन 3 अप्रैल 2013 को हिन्दी रंगमंच दिवस पर हुआ। इसमें बोलते हुए हिमांशु राय ने कहा कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एक अद्भुत व्यक्ति थे। जो केवल 33 वर्ष जिए। लेकिन इन तेंतीस वर्षों में उन्होंने हिन्दी साहित्य और नाटक को जो दिया है वह अमूल्य है। उन्होंने नाटक न केवल लिखे वरन् मंचित भी किए। ये वो समय था जब न मंच था। न नाटक था और न नाटक का कोई इतिहास था। न निर्देशक था न लेखक था। न लाइट थी न मेकअप था। फिर भी भारतेन्दु ने नाटक को अपना अस्त्र बनाया। 

विश्व रंगमंच दिवस : 27 मार्च 2013

जबलपुर। विवेचना के कलाकारों ने विश्व रंगमंच दिवस के अवसर पर पूर्वाभ्यास स्थल पर एक सभा का आयोजन किया। इसमें नाट्य निर्देशक वसंत काशीकर ने कहा कि हम जो नाटक करते हैं उनका उद्देश्य होना चाहिए। जो दर्शक हमारा नाटक देखने आए उसे एक बौद्धिक खुराक भी मिले और मनोरंजन भी। इप्टा के हिमांशु राय ने कहा कि हर रंगकर्मी के लिए जरूरी है कि वो राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति को समझे और देश दुनिया में चल रही गतिविधियों पर पैनी नजर रखे। इसीसे उसकी सोच और अभिनय पर निखार आयेगा। 

विश्व रंगमंच दिवस संदेश: 27 मार्च 2013

इटली के व्यंग्यकार, नाटककार, नाट्य-निर्देशक, अभिनेता, संगीतकार 

नोबल पुरस्कार विजेता दारियो फ़ो का दुनिया भर के कलाकारों को संबोधित संदेश

बहुत समय पहले सत्ता ने कमेडिया दे ला आर्ट  के अभिनेताओं को देश से बाहर निकाल कर उनके विरुद्ध अपनी असहिष्णुता को संतुष्ट किया। आज से ही संकट के कारण अभिनेताओं और थियेटर कंपनियों के लिए, सार्वजानिक मंचों, प्रेक्षागृहों और दर्शकों तक पहुंचना कठिन हो गया है। शासकों को अब उन लोगों से कोई समस्या नहीं है, जो विडंबना और व्यंग्य की  अभिव्यक्ति करते हैं क्योंकि न तो  अभिनेताओं के लिए कोई मंच है और न ही दर्शक, जिसे संबोधित किया जा सके।
इसके उलट पुनर्जागरण के दौर में इटली का सत्ताधारी वर्ग हास्य-व्यंग्य कलाकारों को दूर रखने के लिए विशेष प्रयास करने पर बाध्य हुआ क्योंकि ऐसे प्रदर्शन जनता में बहुत लोकप्रिय थे।
यह तो सर्वविदित है कि कमेडिया दे ला आर्ट के कलाकारों का बड़ी संख्या में बहिर्गमन सुधारों की गति को विपरीत दिशा में ले जाने वाली सदी में हुआ, जब सभी रंगकर्म स्थलों को ध्वस्त करने का आदेश दिया गया - विशेष तौर पर रोम में, जहाँ उन कलाकारों पर पवित्र नगर को अपमानित करने का आरोप लगाया गया। 1697 में पोप इनोसेंट बारहवें ने रूढ़िवादी बुर्जुआ पक्ष और प्रतिनिधि पादरी समूह  के अड़ियल रवैये व लगातार बढ़ते दबाव में तार्दिनोना थियेटर को तोड़ने का आदेश दिया, जहाँ नैतिकवादियों के अनुसार सबसे अधिक अश्लील प्रदर्शन हुए। सुधार के क्रम को उलट दिए जाने वाले समय में उत्तरी इटली में सक्रिय कार्डिनल कार्लो बोरोमियो ने “मिलान की संतानों” को शैतान और पाप से बचाने के लिए कला को आध्यात्मिक शिक्षा का सबसे उच्च स्वरुप और थियेटर को धर्म विरोधी, ईश अहंकार के प्रदर्शन का केन्द्र बताया। अपने सहयोगियों को लिखे एक पत्र के माध्यम से, जिसे मैं अनायास ही  उद्धृत कर रहा हूँ, उसने अपने को कुछ इस तरह से अभिव्यक्त किया “शैतानी ताकतों का विनाश करने के अपने सरोकारों को ध्यान में रखते हुए हमने घृणित संभाषणों से भरे पाठ्यांशों को जलाने, आम जनता की स्मृतियों से उन्हें मिटाने और साथ ही ऐसे लोगों पर जो इन पाठ्यांशों को प्रकाशित कर जनता तक पहुंचाते हैं अभियोग चलाने के सभी संभव प्रयास किये। फिर भी यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि जब हम आराम से थे, शैतान अपने नवीनतम षड़यंत्रों और चालाकियों के साथ पुनः सक्रिय हुआ। आँखें जो देखती हैं, वह इन किताबों को पढ़े जाने की तुलना में कहीं अधिक गहराई से आत्मा को प्रभावित करता है ! किशोरों और युवतियों के मस्तिष्क के लिए किताबों में छपे मृत शब्दों से कितने अधिक विध्वंसकारी हैं उपयुक्त भाव-भंगिमाओं के साथ बोले जाने वाले शब्द। अतः अपने शहरों को थियेटर करने वालों से मुक्त कराना नितांत आवश्यक है ठीक उसी तरह जैसे हम अनचाही आत्माओं से पीछा छुड़ाते हैं।”
इस तरह संकट का हल इसी आशा पर टिका है कि हमारे और युवा नाट्य-प्रेमियों के निर्वासन की मुहिम चले तथा हास्य-व्यंग्य कलाकारों, रंगमंच की तामीर करने वालों को नया समूह उससे निश्चित रूप से अकल्पनीय लाभ तलाशे एवं इस जोर-जबर्दस्ती के खिलाफ नये प्रतिनिधित्व के रूप में आगे आये ।

परसाई के व्यंग्य की सामर्थ्य का साक्षात्कार

उज्जैन में दस दिन का अनशन का मंचन 

अशोक वक्त नईदुनिया, उज्जैन 30 जनवरी 2013

आजादी की लड़ाई के दौरान गंाधी जी ने अनशन औरसत्याग्रह का सार्थक और कारगर उपयोग किया था। आजादी मिलने के बाद उनका दुरूपयोग भी शुरू हो गया। अगर इनका प्रयोग विवेकपूर्ण नहीं हो तो अनर्थकारी भी हो सकता है। इस बात को ही रंगमंच के जरिए संप्रेषित करने की सोद्देश्य कोशिश जबलपुर के रंगकर्मियों द्वारा की गई जो कामयाब भी रही। अर्जुनसिंह रंगोत्सव के साथ रंगकर्म की ताकत का अच्छा प्रतिफलन देखने का अवसर बना। कालिदास अकादमी उज्जैन के प्रेक्षागृह में विवेचना जबलपुर ़द्वारा ’दस दिन का अनशन’ की नाट्य प्रस्तुति ने दर्शकों की खूब प्रशंसा प्राप्त की। 
दस दिन का अनशन हरिशंकर परसाई का बहुचर्चित व्यंग्य है जो करीब आधी सदी पहले लिखा गया था। इस व्यंग्य का नाट्य रूपांतर करते हुए निर्देशक वसंत काशीकर ने उसे ’जस का तस’ रखने का प्रयास किया है। मूल रचना की संरक्षा की निर्देशकीय कोशिश सचमुच सराहनीय है। नाटक में लफंगा बन्नू मोहल्ले की विवाहित युवती सावित्री का दीवाना हो जाता है और उससे शादी करना चाहता है। नेता हरि प्रसाद और बाबा सनकीदास के षड्यंत्र के तहत बन्नू सावित्री के घर के सामने अनशन पर बैठ जाता है।
नेता और बाबा मिलकर अनशन को विराट राजनीतिक रूप दे देते हैं। अनशन के समर्थन में कवि सम्मेलन और नुक्कड़ नाटक होते हैं। विवाह कानून में संशोधन की मांग बलवती होती जाती है। प्रधानमंत्री तक से चर्चा होती है। शहर का माहौल अराजक होने लगता है तो कर्फ्यू लगाना पड़ता है। जाति और धर्म से होता हुआ बन्नू का अनशन राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न बन जाता है। इस सारे घटनाक्रम की मजेदार प्रस्तुति करते हुए कलाकारों ने वर्तमान राजनीतिक और सामाजिक पाखंड और विद्रूपता को उजागर करने का उपक्रम किया। ’दस दिन का अनशन’ किसी शैली विशेष में नहीं बंधा था। यथार्थवादिता के ााि ही प्रस्तुतिकरण में विविधता के समावेश के जतन किए गए। पार्श्व संगीत ध्वन्यांकित था जिसमें पुराने मशहूर फिल्मी गीतों का दिलचस्प इस्तेमाल किया गया।
बाबा सनकीदास के रूप में संजय गर्ग के अभिनय को दर्शकों द्वारा पसंद किया गया। नेता-सीताराम सोनी, बन्नू-मो अली और सावित्री -इंदु सूर्यवंशी का अभिनय अच्छा था। व्यंग्य के तेवर के साथ सार्थक और रंजक रंगकर्म की बानगी नाटक में देखने को मिली।