Saturday, May 7, 2016

विवेचना के इक्कीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का तीसरा दिन





टी वी की बहस में सार्थकता की खोज
सार्थक बहस का मंचन संपन्न
विवेचना के इक्कीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसरेे दिन 10 अक्टूबर 2014 को मुखातिब थियेटर ग्रुप मुम्बई ने इश्तियाक आरिफ खान के निर्देशन में ’सार्थक बहस’ का मंचन कर दर्शकों का खूब मनोरंजन किया। यह एक व्यंग्य नाटक है पर इसमें इतना कुछ सार्थक कहा गया कि दर्शक लगातार तीखे व्यंग्य का आनंद लेता रहा। नाटक की विशिष्टता इसकी कथा की बुनावट और कलाकारों के अभिनय मंे है।
भारत के ऐतिहासिक नाटककार भास के द्वारा लिखित नाटक ’कर्णभारम’ और ’उरूभंगम’ का मंचन एक गांव में हुआ। टी वी चैनल केजी टी वी एक कार्यक्रम में यह दिखा रहा था कि उस नाटक के कारण गांव में विवाद हुआ। मीडिया यह दिखा रहा था कि किस तरह से एक मामूली विवाद एक बड़े झगड़े का रूप ले लेता है और जिसके कारण कई लोग बुरी तरह घायल हो जाते हैं। उस इलाके की शांति खतरे में पड़ जाती है। के जी टी वी द्वारा बहस में शामिल होने के लिए कई विद्वानों को बुलाया गया है। पर किस तरह से यह बहस हास्यास्पद हो जाती है यह इस नाटक का विषय है।
पूरे नाटक में टी वी की बहस ही चलती रहती है। इसमें बैठे विद्वान लगातार बोलते रहते हैं। विषय पर कोई नहीं बोलता न कर्णभारम और उरूभंगम नाटकों से किसी को कोई मतलब है। सबसे हास्यास्पद स्थिति तब होती है जब टी वी चैनल के संवाददाता के माध्यम से उस गांव के लोगों को पता चलता है कि गांव मंे झगड़ा हो गया है। क्योंकि कोई झगड़ा हुआ ही नहीं था। कलाकारों को बार बार टी वी पर बोलने के लिए कहा जाता है मगर बोलने नहीं दिया जाता क्यांेकि तब तक आमंत्रित विशेषज्ञ आपस में लड़ने लगते हैं। अलग अलग वि+द्वानांे की भूमिका कलाकारों ने बहुत अच्छे से निभाई और इस सार्थक बहस का परिणाम ये हुआ कि दर्शक बहुत जागरूक होकर प्रेक्षागृह से निकलता है। निर्देशक ने हास्य और व्यंग्य के बहाने दर्शकों तक यह बात पंहुचाने की कोशिश की कि टी वी की बहसों से प्रभावित होकर वे कोई भावनात्मक निर्णय न लें क्योंकि ये बहसें भी इन चैनलों के व्यापार का एक हिस्सा हैं और इनका यथार्थ से कोई संबंध हो यह जरूरी नहीं। निर्देशक का कहना है कि मीडिया जिसकी जिम्मेदारी है कि वो देश को एक सुचिन्तित दिशा दे वही उसे एक भ्रमित, अस्तव्यस्त और अराजकता से भरा देश बना रहा है। हम अपनी धारणा बनाने के बजाए मीडिया से प्रभावित धारणा बना रहे हैं। हमारा हीरो कौन हो ? क्या खाएं ? परिवार और मित्रों के साथ कहां जाएं ? क्या पहनें ? टायलेट में क्या इस्तेमाल करें ? किससे शादी करें ? इस जैसे सभीे प्रश्न भी अब मीडिया ही तय कर रहा है। मीडिया के लिए केवल टीआरपी महत्वपूर्ण है चाहे देश में आग ही क्यों न लग जाए।
नाटक का निर्देशन बहुत कल्पनापूर्ण था। टी वी चैनल का सैट लगाया गया था। सभी कलाकारों ने बहुत सटीक अभिनय से अपनी छाप छोड़ी। वेशभूषा नाटक के अनुरूप थी।  
नाटक के अंत में निर्देशक नरेश मलिक सहनिर्देशक को श्री हरि भटनागर की पेन्टिग स्मृतिचिन्ह के रूप में प्रदान की गई। इस अवसर पर विवेचना से हिमंाशु राय, बांकेबिहारी ब्यौहार, वसंत काशीकर उपस्थित थे। 

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