दस दिन का अनशन के शानदार मंचन के साथ शुरूआत
विवेचना के 18 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की शानदार शुरूआत हुई। विवेचना के इस समारोह के उद्घाटन हेतु मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल के निर्देशक श्री संजय उपाध्याय विशेष रूप से जबलपुर आए। दीप प्रज्वल्लन के पश्चात नाट्य समारोह का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा कि 18 वर्ष तक एक परंपरा को सहेजना बहुत बड़ी बात है। विवेचना के इस आयोजन ने पूरे देश के रंगकर्मियों को आकर्षित किया है। इस समारोह में मेरे द्वारा निर्देशित दो नाटकों के मंचन भी हुए हैं। नाट्य समारोहों के आयोजन से शहरों में नया दर्शक वर्ग बनता है और देश के विभिन्न इलाकों में अलग अलग निर्देशकों के काम की विविधता देखने को मिलती है। इस अवसर पर विवेचना के सचिव हिमांशु राय ने सभी अतिथियों और दर्शकों का स्वागत करते हुए बताया कि इस समारोह की विशेषता यह है कि इस बार आमंत्रित सभी नाटक पहली बार आ रहे हैं। इस बार के समारोह में इप्टा मुम्बई का शामिल होना भी विशेष अहमियत रखता है। केन्द्रीय कीड़ा व कला परिषद मध्यप्रदेश विद्युत मंडल के महासचिव श्री संतोष तिवारी ने इस अवसर पर कहा कि जिस समारोह को शहर के हजारों लोग पसंद करते हों उसकी श्रेष्ठता तो स्वयंसिद्ध है। कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय के रजिस्ट्रार श्री आनंद सिन्हा भी उद्घाटन के अवसर पर उपस्थित थे।
उद्घाटन के पश्चात् विवेचना के कलाकारों ने परसाई जी की कहानी ’दस दिन का अनशन’ का मंचन किया। यह कहानी परसाई जी ने साठ के दशक में लिखी थी। इसका व्यंग्य इतना तीखा और सीधा है कि दर्शक को हर अनशन से सावधान करता है। मुहल्ले का एक लफंगा बन्नू राधिका बाबू की पत्नी सावित्रीके पीछे पड़ा है और चाहता है कि उसकी शादी सावित्री से हो जाए। वो कई बार पिट चुका है। वो मुहल्ले के छुटभैये नेता हरिप्रसाद के पास जाता है। वो तुरंत उसकी मदद के लिए तैयार हो जाते हैं। बाबा सनकीदास उनसे आ मिलते हैं और दोनों के राजनैतिक दंावपेंचों में बन्नू दस दिन के अनशन पर बैठ जाता है। हरिप्रसाद और सनकीदास रोज नई चाल चलते हैं और अंत में सरकार से विवाह कानून में संशोधन करवाने का आश्वासन लेकर बन्नू का अनशन तुड़वा भी देते हैं। चालीस साल पहले लिखी कहानी में आज के हालात का ऐसा साम्य देखकर का दर्शक आश्चर्यचकित हो जाता है। परसाई जी के व्यंग्य ने जहां बार बार कचोटा वहीं नाटक में बार बार दर्शक आनंदित हो ताली बजाने लगा।
नाटक के लिए एक सादा दो मंजिला सैट लगाया गया था जो नाटक के प्रस्तुतिकरण में बहुत सहायक था। वेशभूषा नाटक के बिल्कुल अनूरूप और सादी थी। नाटक में कहीं भी कहानी को आज के हालात से जोड़ने की कोशिश नहीं की गई। यह फैसला दर्शकों पर छोड़ दिया गया। नाटक में बन्नू के अनशन के अवसर पर कवि सम्मेलन, नुक्कड़ नाटक और भजनों के कार्यक्रमों में छुपे व्यंग्य का दर्शकों ने बहुत आनंद लिया।
अपने अपने छोटे बड़े रोल में संजय गर्ग, सीताराम सोनी, अली, इंदु सूर्यवंशी, संजीव विश्वकर्मा, अजय जायसवाल, श्याम मेहरा, उषा तिवारी, रश्मि अग्रवाल, प्रशंात दीक्षित, राघवेन्द्र, कुन्दन मिश्रा, मोहित पंचभाई, अभिनव काशीकर ने अपनी भूमिकाओं का निर्वाह बहुत कुशलता से किया।
नाटक में परिस्थितियों के अनुकूल फिल्मी गानों का उपयोग बहुत कुशलता से किया गया। विनय यादव और रवि शर्मा ने कुशल संगीत संयोजन किया। भोपाल से आए कमल जैन ने बहुत कुशलता से नाटक को अपनी मनोहारी प्रकाश परिकल्पना से सजाया। नाटक के अंत में दर्शकों की करतल ध्वनि के बीच निर्देशक वसंत काशीकर का अभिनंदन श्री संजय उपाध्याय व आनंद सिन्हा ने किया।
नाट्य समारोह के दूसरे दिन हिसार हरियाणा से आए कलाकारों ने अपनी निराली प्रस्तुति से दर्शकों का मनमोह लिया। दर्शकों को पहली बार पता चला कि नाटक वालों की जिन्दगी कैसी होती है। इस प्रस्तुति में एक अलग ही आस्वाद था। इस नाटक ने दर्शकों को अपने साथ लेकर नाटक का हिस्सा बना लिया।
नाटक के निर्देशक और प्रमुख कलाकार मनीष जोशी बिंिस्मल ने बताया कि यह प्रस्तुति बहुत से साथियों के सामूहिक प्रयास का नतीजा है। एक कमरे में कुछ कलाकारों के विचार मिलते गए और अपनी ही कहानी कहते कहते नाटक तैयार हो गया। नाटक में बहुत से प्रसिद्ध कवियों की कविताएं भी शामिल हो गईं। कठपुतली और जादू के सिद्धहस्त मनीष जोशी ने इन दो विधाओं को भी नाटक का हिस्सा बना दिया।
किस कलाकार के घर में क्या समस्या है और किसके घर में कोई समस्या नहीं है इसको न सोचकर हर कलाकार नाटक, पेन्टिंग, कहानी, उपन्यास कविता जैसी कोई न कोई चीज रचने में लगा रहता है। और अंतत तो उसका यही कहना रहता है कि हम तो ऐेसे ही हैं। हमारे ऐसे ही होने के कारण तो बहुत कुछ रचा जाता है।
नाटक की मंच व्यवस्था बहुत सादी थी। नाटक मंे मुंशी प्रेमचंद, हबीब तनवीर, एम एफ हुसैन, आदि की पेन्टिंग लगी हुई थीं। बारह कलाकार मंच पर थे और दर्शकों का ध्यान मंच से हटने नहीं दे रहे थे। रास कला मंच के कलाकारों ने दर्शकों को ऐसा बांधा कि दर्शक यह कहते हुए ही उठे कि रंगमंच को जीवित रखेंगे। हम कलाकारों और उनकी मुश्किलों के साथ हैं। मंच पर जहां विभिन्न भूमिकाओं में रवि मोहन, राहुल पाठक, नितिन कालरा, विशेष विद्रोही, संजय सोनी, प्रसून नारायण, मनोज कुमार, कुमार महेन्द्र, नवीन, राखी जोशी और नरेश भारतीय विभिन्न भूमिकाओं को निबाहते हुए खूब पसंद किए गए। संगीत अनिल मिश्रा का था और मंच सज्जा पवन संधु की थी। नाटक का लेखन व निर्देशन मनीष जोशी बिस्मिल का था। नाटक में पियूष मिश्रा, पाश, विमल मिद्दा, बलजिंदर संधु, रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं का प्रयोग किया गया।
विवेचना के अठारहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के तीसने दिन भोपाल के नाट्य दल ’थर्ड बैल’ ने अनूप जोशी बंटी के निर्देशन में आरक्त क्षण नाटक ने अपनी सघनता और विषय की गंभीरता से दर्शकों को बांध दिया। यह नाटक महेश एलकुंचवार का लिखा हुआ है जो अपने नाटकों में बहुत अलग किस्म की कहानी को चुनते हैं। आरक्त क्षण बहुत प्रसिद्ध नाटक है जिसमें परिवार के अंदर मां बाप बेटी के रिश्तों पर एक बहस है।
नाटक की कथा कुछ इस प्रकार है। घर में केवल चार प्राणी हैं। बाबूजी, पद्मा, लाली और किरायेदार राजू। जवान लड़के शशि की दुर्घटना में मृत्यु के कारण घर का वातावरण बहुत भारी है। अकेलापन, शोक और तनाव घर में पसरा हुआ है। आपसी संबंधों में खालीपन आ गया है। घर के सभी लोग अपने अपने में डूबे हुए हैं। घर में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जिससे मां और बेटी में तकरार हो जाती है। इस तकरार से पद्मा और बाबूजी के बीच संदेह की दीवार खिंच जाती है। एक ऐसी स्थिति पैदा होती है जिसमें घर के सभी सदस्य ठगे से रह जाते हैं ओर वो क्षण आता है जब लगता है कि शरीर का सारा खून निचुड़ गया है। नाटक के निर्देशक अनूप जोशी ’बंटी’ ने कहा कि ’आरक्त क्षण’ में मन के भावों की तीक्ष्णता, तनाव और असंतुलन आपस में गुथे हुए हैं। नाटक में कौन सही है और कौन गलत है इसका निर्धारण करना बहुत मुश्किल है। मैं सच और झूठ का, सही और गलत का फैसला दर्शकों के हवाले करता हूं। हर दर्शक संबंधों की अपनी व्याख्या कर सकता है।
बाबूजी के रोल में राजीव श्रीवास्तव, पद्मा के रोल में स्वास्तिका चक्रवर्ती, लड़की लाली के रूप में मीनल नाफडे और किरायेदार के रूप में तानाजी राव ने बहुत सधा अभिनय किया। स्वास्तिका चक्रवर्ती के अभिनय ने दर्शकों को बहुत प्रभावित किया।
नाटक प्रारंभ होने के पूर्व विवेचना के इस समारोह में अन्विता प्रकाशन के पुस्तक प्रदर्शनी लगाई गई। एक सादे समारोह में तरंग की गैलरी में अहमदाबाद से पधारे सुप्रसिद्ध कार्टूनिष्ट श्री निर्मीश ठाकर के कार्टूनों की प्रदर्शनी का उद्घाटन श्री ज्ञानरंजन ने किया। निर्मीश ठाकर अनोखे कार्टूनिष्ट हैं जो केवल कलाकारों के ही कार्टून बनाते हैं। इसके लिए उनका नाम लिमका बुक ऑफ रिकॉर्डस में दर्ज है। प्रदर्शनी में 65 कार्टून प्रदर्शित हुए। नाट्य समारोह में इस प्रदर्शनी ने अतिरिक्त आकर्षण भर दिया। बड़ी संख्या में दर्शकों ने कार्टूनों को देखा और सराहा।
विवेचना के अठारहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के चौथे दिन ’इप्टा’ मुम्बई ने काबुलीवाला के मंचन से दर्शकों को 50 साल पहले की काबुलीवाला फिल्म की याद ताज़ा कर दी। काबुलीवाला गुरूदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की लिखी कहानी है जो भारतवासियों के दिलों में बसी है। अफगानिस्तान जो आतंक और खूनखराबे का पर्याय बना हुआ है कभी लाखों भारतवासियों का घर हुआ करता था और पूरे देश में घूमघूमकर अफगानी लोग मेवे और पिश्ते, कपड़े बेचकर अपना जीवन यापन करते थे। अपनी वेशभूषा और बोलचाल के कारण ये काबुलीवाले अलग ही दिखते थे और अपने मीठे स्वभाव के कारण सबके दिलों में राज करते थे।
इस कहानी पर पहली बार बलराज साहनी ने एक नाटक तैयार कर बम्बई के एक स्कूल में खेला था जहां उनकी बच्ची पढ़ती थी। फिर इस पर एक फिल्म बनी और उसके बाद से यह कहानी लोगों के दिलों में समा गई ।यह नाटक रवीन्द्रनाथ टैगोर की इसी नाम की कहानी पर आधारित है। अफगानिस्तान से काबुली वाला अपनी छोटी लड़की को छोड़कर भारत आता है। उसकी दोस्ती मिनी नाम की बच्ची से हो जाती है। इसी बीच काबुलीवाला का लेनदेन को लेकर किसी से झगड़ा हो जाता है और वो कई सालों के लिए जेल चला जाता है। जब काबुलीवाला जेल से वापस आता है तो उस दिन मिनी का शादी हो रही होती है। काबुलीवाला को लगता है कि उसे तत्काल अपने देश जाना चाहिए जहां उसकी अपनी बच्ची उसका इंतजार कर रही है।
नाटक में काबुलीवाला फिल्म के गानों का उपयोग किया गया है। इससे कहानी और ज्यादा निकट लगती है। नाटक में काबुलीवाला के रूप में जाने माने टी वी कलाकार आसिफ शेख ने बहुत प्रभावशाली अभिनय किया है। बच्ची की मां के रूप में निवेदिता बौंठियाल और बच्ची के पिता के रूप में जाने माने अभिनेता रमन कुमार ने अपने अभिनय से कहानी को चार चांद लगा दिये। दर्शकों को लगा ही नहीं कि वो एक नाटक देख रहे हैं। बच्ची के रोल को बेबी गुनगुन ने बहुत प्यारे ढंग से निबाहा। मुम्बई के नाटकों में सैट, लाइट साउंड का कमाल देखने का मिलता ही है।
नाटक का निर्देशन रमेश तलवार ने किया है। रमेश तलवार जाने माने फिल्म निर्देशक हैं। उनके निर्देशन में कल्पनाशीलता और नाटकीयता एक साथ दिखाई दी।
विवेचना के अठारहवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह के अंतिम दिन ’रंगबाज़ थियेटर ग्रुप’ मुम्बई ने दर्शकों को हंसा हंसा कर लोटपोट कर दिया। बड़े मियां की दीवानगी ने कुछ ऐसा समा बांधा कि शुरू से अंत तक दर्शक मजे लेता रहा। यह नाटक उर्दू लेखक शौकत थानवी के उपन्यास ’बुढ़भस’ पर आधारित है। मीर साहब अमीर आदमी हैं और उम्र करीब पचहत्तर साल है। मगर पड़ोस में रहने वाली सुन्दर युवती से शादी करना चाहते हैं। युवती के पिता शेख साहब समझते हैं कि वो अपने लड़के के रिश्ते की बात कर रहे हैं और मीर साहब समझते हैं कि शेख साहब अपनी लड़की की शादी उनसे करने को राजी हैं। मीर साहब का लड़का उस लड़की से मुहब्बत करता है और एक मध्यस्थ की मदद से मामला सम्हालने की कोशिश करता है तो मध्यस्थ की ही शादी तय होने लगती है। इस सारी उधेड़बुन में दो तवायफों को भी पता चलता है कि बूढ़ा शादी करने की जुगत में है तो वो भी अपना हिस्सा मांगने आ पंहुचती हैं। तकरार, गलतफ़हमियांे और नोंक झोंक के बीच कहानी आगे बढ़ती है और दर्शकों को हंसते हुए नाटक का आनंद उठाते हैं।
नाटक का निर्देशन इमरान राशिद ने किया है। नाटक में बहुत कसावट थी। एक घंटा पैंतालीस मिनट के नाटक में कहीं कोई धीमापन नहीं था। पूरा नाटक में घटनाओं का तानाबाना इस तरह से बुना गया कि दर्शक का ध्यान कहीं भटकता नहीं था। नाटक का सैट बहुत भव्य था। सुनील पंडित ने सैट पर खासी मेहनत की। मीर साहब के रूप में इमरान राशिद ने कमाल का अभिनय किया है। शेख साहब - आकर्ष खुराना, शेखानी - ताहिरा नाथ, हीरा - शिवानी टंकसाले, गुलाब - अबीर अबरार, शौकत साहब - अधीर भट्ट ताबिश - पवन उत्तम, सुरैया - दिलशाद एडीबम पुत्तन- संजय दधीच, चिल्ला - फारूख सियर, काजी - राघव दत्त ने सुंदर अभिनय किया।
विवेचना के अठारवें राष्टीय नाट्य समारोह में सभी नाट्य दल पहली बार आए। निर्मिश ठाकर की व्यंग्यचित्र प्रदर्शनी और अन्विता प्रकाशन की पुस्तक प्रदर्शनी ने खूब प्रशंसा पाई। हर बार की तरह हर नाटक को देखने के लिए पूरा हॉल दर्शकों से भरा रहा। अंतिम दिन ’बड़े मियां दीवाने’ नाटक के साथ कोई बड़ा नाम नहीं जुड़ा था मगर हॉल में क्षमता से ज्यादा दर्शक थे। दर्शकों ने यह साबित किया कि वो नाटक से कलाकार और निर्देशक को तौलते हैं। काबुली वाला के प्रदर्शन के बाद दर्शकों ने कहा कि फिल्म ही नहीं नाटक भी दर्शकों को भावुक कर रूला सकता है। नाट्य समारोह के अंत में विवेचना ने सभी सहयोगियों का आभार व्यक्त किया।
Tuesday, November 29, 2011
Friday, November 25, 2011
22 अगस्त परसाई जी का जन्मदिवस
विवेचना और पहल ने मिलकर जबलपुर में स्व हरिशंकर परसाई का जन्मदिवस मनाया। 22 अगस्त को आयोजित इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में जबलपुर के परसाई प्रेमीजन इकठ्ठे हुए। जबलपुर में प्रतिवर्ष 22 अगस्त को परसाई जी का जन्मदिवस विवेचना द्वारा मनाया जाता रहा है। नाटक नाट्य पाठ रचना पाठ और व्याख्यान आदि इस दिन होते रहे हैं। इस वर्ष इसमें एक नई कड़ी जुड़ी जब आज के समय के दो ऐसे कवि इस आयोजन में शामिल हुए जिनका परसाई जी से निकट का संबंध रहा है।
कार्यक्रम की शुरूआत परसाई जी के चित्र पर माल्यार्पण से हुई। पहले वक्ता के रूप में बोलते हुए प्रो ज्ञानरंजन ने कहा कि परसार्इ्र का संघर्ष दुहरा था। एक ओर उन्होंने एक नई शैली में लिखना शुरू किया। दूसरे उनके लेखन में विचारों की तीव्र आवेग के कारण बहुत सारे पत्रकार, समीक्षक और आलोचक उनसे अलग अलग रहे और उनकी उपेक्षा करते रहे। बहुत बाद में सुरेन्द्र चौधरी और डा विश्वनाथ त्रिपाठी ने परसाई जी के लेखन पर गहराई से विचार किया और बहुत कुछ लिखा। बहुत लंबे समय तक परसाई जी के लेखन को बहुत से आलोचकों ने जानबूझकर नजरअंदाज किया। परसाई ने एक संघर्षपूर्ण जीवन जिया। उनका लेखन उनके जीवन संघर्ष को प्रतिबिम्बित करता है। उनका व्यंग्य गुदगुदाने के लिए नहीं वरन् अंदर तक हिला देने के लिए होता था।
कवि लीलाधर मंडलोई ने ’’परसाई का जीवन’’ विषय पर बोलते हुए कहा कि परसाई जी ग्रामीण और कस्बाई परिवेश के व्यक्ति थे। वे परिवार का बोझ उठाना जानते थे। बहन और उनके बच्चों की परवरिश के लिए उन्होंने अपना व्यक्तिगत जीवन कुर्बान कर दिया। पर परसाई जी ने अपनी यंत्रणाओं को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। उनके अपने जीवन संघर्ष की छाया उनके लेखन में दिखाई देती है। उन्हें जबलपुर में भवानी प्रसाद तिवारी, रामानुजलाल श्रीवास्तव, रामेश्वर प्रसाद गुरू जैसे साहित्यकारों का साथ मिला। मंडलोई जी ने कहा कि हम परसाई के साथ रहे हैं यह गौरव की बात है।
कवि नरेश सक्सेना ने परसाई जी के साथ अपने संबंधों को याद किया। उन्होंने कहा कि परसाई जी के कारण ही उन्हें आधुनिक कविता से परिचय हुआ। मुक्तिबोध जी वे परिचय हुआ। नरेश जी ने बताया कि उनकी शादी के समय भी परसाई जी ने बड़े भाई और पिता के समान उनका साथ दिया।
कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री अरूण कुमार ने कहा कि परसाई जी अपने लेखन के बहाने आंख खोलने का काम करती हैं। परसाई जी का लेखन लोकप्रिय है। वे जनशिक्षक थे। उनकी रचनाएं छोटी होते हुए भी एपिक का काम करती हैं। उनसे जो भी मिलता था उससे एक सी बात होती थी। वो चाहे विद्वान हो या साधारण व्यक्ति।
इस अवसर पर हिमांशु राय ने परसाई जी की रचना ’’साधना का फौजदारी अंत’’ का पाठ किया।
कार्यक्रम के दूसरे चरण में काव्य पाठ हुआ। पहले श्री लीलाधर मंडलोई ने शुरूआत करते हुए कहा
जिनका सिरहाना ताउम्र पत्थर रहा हो,
उन्हें तकिये पर नींद नहीं आती
पत्थर की कोमलता कोई नहीं जानता।
मंडलोई जी की कविताओं को श्रोताओं ने बहुत सराहा। मंडलोई जी के बाद कवि नरेश सक्सेना ने काव्य पाठ किया।
उनकी कविताओं ने श्रोताओं को भावविभोर कर दिया।
शिशु लोरी के शब्द नहीं
संगीत समझता है।
अभी वे अर्थ नहीं वो
शब्द समझता है।
परसाई जी को याद करते हुए सैकड़ों लोग विवेचना और पहल द्वारा आयोजित कार्यक्रम में आए। कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। इस अवसर पर राजेश दुबे के कार्टून की प्रदर्शनी भी लगाई गई जो परसाई जी की रचनाओं पर आधारित थी। आभार प्रदर्शन पंकज स्वामी ने किया।
कामरेड शेषनारायण राय स्मृति व्याख्यान व काव्यपाठ
विवेचना जबलपुर और पहल ने मिलकर जबलपुर में 17 जुलाई 2011 को कामरेड शेषनारायण राय स्मृति व्याख्यान व काव्यपाठ का आयोजन किया। कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध चित्रकार अशोक भौमिक का व्याख्यान और नरेन्द्र जैन व मंगलेश डबराल का काव्यपाठ संपन्न हुआ। का. शेषनारायण राय विवेचना जबलपुर के संस्थापकों में से एक और जबलपुर शहर के प्रमुख वामपंथी नेता थे। जिस समय मुक्तिबोध और परसाई जैसे महान लेखकों की किताबें कोई प्रकाशक नहीं छाप रहा था उस समय का. शेषनारायण राय ने मुक्तिबोध की किताब ’कामायनी एक पुनर्विचार’ और परसाई जी की किताबें ’सुनो भाई साधो’ व ’बेईमानी की परत’ छापी थी। परसाई जी और का राय बहुत घनिष्ठ मित्र थे। ’इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’ एक सत्य घटना है जो का राय के साथ घटी थी। कहानी में भला आदमी का. राय हैं। एक दूसरी प्रसिद्ध रचना ’एक लड़की पांच दीवाने’ का राय की पुस्तक दुकान यूनीवर्सल बुक डिपो के आस पास की घटना है। इस दुकान पर न केवल परसाई जी की नियमित बैठक थी वरन् यहां से उस समय के जबलपुर की साहित्यिक सांस्कृतिक राजनैतिक गतिविधियां संचालित होती थीं। इसी दुकान में बैठे बैठे मित्रों ने विवेचना का गठन किया था। उद्देश्य था गोष्ठियों के माध्यम से आम जनता को घटनाओं की सचाई बताई जाए। का. राय ने एक संपन्न परिवार में जन्म लेकर भी अपना जीवन किसान मजदूरों की लड़ाई लड़ते बिताया। वे जबलपुर की कम्युनिष्ट पार्टी के जिला सचिव रहे। उनकी पांचवीं पुण्यतिथि के अवसर पर आयोजित इस कार्यक्रम में जबलपुर शहर के साहित्यिक सांस्कृतिक अभिरूचि के लोग बड़ी संख्या मंे शामिल हुए। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में महिलाएं उपस्थित थीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार श्री श्याम कटारे ने की। कार्यक्रम स्थल को विनय अंबर और ऋषि जेना ने मंगलेश व नरेन्द्र की कविताओं पर आधारित पोस्टरों से सजाया था।
व्याख्यान का विषय था ’कला, संस्कृति और आज की सांस्कृतिक संकेत’ । देश के सुविख्यात चित्रकार अशोक भौमिक ने कहा कि देश में अनेक संगठन अनेक राजनैतिक दलों से प्रभावित हैं पर आज की जरूरत है कि सभी संगठन अपने अपने पूर्वाग्रह छोड़कर सच्चे अर्थों में गरीबों, जरूरतमंदों, आदिवासियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करें। आज गरीबों की लड़ाई कोई नहीं लड़ रहा। उन्होंने अपना व्याख्यान चित्त प्रसाद की चित्रकला पर केन्द्रित कर अपनी बात कही। चित्त प्रसाद के चित्रों को प्रदर्शित कर उन्होंने बताया कि किस तरह एक चित्रकार संघर्षरत मजदूरों किसानों के बीच जाकर उनकी हलचलों को कलात्मक रूप से चित्रित करता है जो सदियों तक एक रिकार्ड के रूप में हमारे बीच रहेगा। चित्तप्रसाद के चित्रों में समय के साथ उनकी समझ और देश के मजदूर किसानों के बदलते हालात को आसानी से चिन्हित किया जा सकता है। चित्तप्रसाद की गहरी मानवीय दृष्टि और बारीक अवलोकन बहुत प्रभावित करते हैं। लिनोकट में इतना श्रेष्ठ काम बहुत दुर्लभ है वो भी तब जब उन्होंने किसी कला विद्यालय में शिक्षा नहीं ली थी।
अशोक भौमिक के व्याख्यान के बाद दूसरे चरण में सर्वप्रथम तापसी नागराज ने मंगलेश डबराल की कविता ’मां मुझे पहचान नहीं पाई जब मैं घर लौटा सर से पांव तक धूल से सना हुआ’ और नरेन्द्र जैन की कविता ’एक दिन हमसे पूछा जाएगा हम क्या कर रहे थे’ का गायन किया। इसके बाद नरेन्द्र जैन ने काव्यपाठ किया। उन्होंने उज्जैयनी में एक पिंजारवाड़ी है और पिंजारवाड़ी में एक उज्जैयनी’, आसमान इतना खाली है जितनी तुम्हारी आंख’, जब कुछ भी नहीं हुआ करता आलू जरूर होता है, कवि के जाने के बाद हमने नहीं लिखी कोई कविता, ध्वस्त होती हुई दुनिया का मैं अंतिम नागरिक हुआ। ं।
नरेन्द्र जैन के बाद मंगलेश डबराल ने अपना रचना पाठ किया। उन्होंने संगतकार, यह नंबर मौजूद नहीं, नया बैंक, टार्च, पुरानी तस्वीर आदि अपनी चुनिंदा कविताएं सुनाईं।
कार्यक्रम का संचालन बांकेबिहारी ब्यौहार ने किया। अंत में पंकज स्वामी ने आभार प्रदर्शन किया।
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